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________________ जैव-मक्तिका स्व १३ इसका तात्पर्य है कि भगवान्, चिन्तामणि या कल्पवृक्षको भाँति, भक्तिका फल देने में अचेतन हैं, किन्तु उनके निमित्तसे होनेवाले पुण्योदय से, भक्त भक्तिका फल पा जाता है। पुण्य प्रकृतियां चक्रवर्ती तककी विभूतिको देनेमें समर्थ हैं । 'पुण्य गुणके स्मरण' से भाव कैसे पवित्र होते हैं ? एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न है । इसके उत्तरमें जैनोंका कर्म सिद्धान्त लिया जा सकता है। शुभ और अशुभके भेदसे कर्म दो प्रकारके होते हैं । दोनों ही का आस्रव [ आगमन ] मन, वचन, कायकी क्रियासे होता है । जब यह क्रिया शुभ होती है, तब शुभ कर्म, और जब अशुभ होती है, तब अशुभ कर्म बनते हैं । भगवान् जिनेन्द्र में अनुराग करना, एक शुभ क्रिया है, अतः उससे पाप कर्मों का नाश और शुभ कर्मो का उदय होगा ही । आचार्य समन्तभद्रने कहा है, " स्तुतिके समय स्तुत्य चाहे प्रस्तुत रहे या न रहे, फलकी प्राप्ति भी सोधी उसके द्वारा होती हो या न होती हो, परन्तु साधु स्तोताकी स्तुति, कुशलपरिणामकी कारण अवश्य है । वह कुशल-परिणाम अथवा तज्जन्य पुण्य- विशेष श्रेय फलका दाता है ।” यहाँ 'कुशल- परिणाम' का अर्थ 'पुष्य-प्रसाधक' परिणाम है। इसका तात्पर्य है कि भक्तिपूर्वक की गयी स्तुति पुण्य-वर्द्धक कर्मों को जन्म देती है । तत्त्वार्थश्लोकवात्तिकादिमें भी अज्ञात आचार्यकी एक कारिका उद्धृत है, जिसका अर्थ है, "भगवान् के गुणोंमें अनुराग करनेसे सामर्थ्यवान् अन्तराय कर्म, जो कि दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य में बाधा उपस्थित करता है, समाप्त हो जायेगा। शुभ कर्मों का आसव होनेसे हमारी सभी कामनाएँ पूरी हो जायेंगी ।" १. 'शुभः पुण्यस्याशुभः पापस्य । आचार्य उमास्वाति, तत्त्वार्थसूत्र : पं० कैलाशचन्द्र सम्पादित, चौरासी [ मथुरा ] वीर निर्वाण सं० २४७७, ६३, पृ० १४० । २. स्तुतिः स्तोतुः साधोः कुशल-परिणामाय स तदा भवेन्मा वा स्तुत्यः फलमपि ततस्तस्य च सतः । किमेवं स्वाधीन्याज्जगति सुलभे श्रायसपथे स्तुयान स्वा विद्वान्सततमभिपूज्यं नमि-जिनम् ॥ आचार्य समन्तभद्र, स्वयम्भूस्तोत्र : पं० जुगलकिशोर मुखतार सम्पादित, हिन्दी अनूदित, वोरसेवामन्दिर, सरसावा, जुलाई १९५१, २१1१, पृष्ठ ७४ । ३. नेष्टं विहन्तुं शुभभाव- भग्न- रसप्रकर्षः प्रभुरन्तरायः । तत्कामचारेण गुणानुरागान्नुत्यादिरिष्टार्थंकदाऽर्हदादेः ॥ देखिए, स्तुतिविद्या : पं० जुगलकिशोर मुख्तार सम्पादित, बीरसेवामन्दिर, सरसावा, सहारनपुर, वि० सं० २००७, प्रस्तावना, पं० जुगलकिशोर लिखित, पृष्ठ १६ ।
SR No.010090
Book TitleJain Bhaktikatya ki Prushtabhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1963
Total Pages204
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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