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________________ अवलोकन । न्यायाचार्य पं० सुखलाल जी, प्रो० हिन्दू यूनिवर्सिटी काशी द्वारा लिखित किसी प्रतिष्ठित और चिरपरिचित मित्रकी कृतिका 'अवलो. कन' करके उसके बारेमें कुछ प्रास्ताविक लिखनेका काम सरल नहीं है। क्योंकि उस कृतिके अवलोकनके समय जिन संदेशोंकी छाप हृदयपर अङ्कित होती है, उन्हें यथार्थ रूपमें लिखते समय यह शक्का वाचकोंकी ओरसे बनी रहती है कि शायद अवलो. कनकार पुस्तकके लेखकके प्रभाव या दृष्टिरागके वशीभूत होकर ही ऐसा लिखने लगा होगा। इसी तरह जिन त्रुटियोंकी छाप अवलोकनके समय हृदयपर पड़ी हो, उन्हें स्पष्टरूपसे लिखने में भी अवलोकनकारको अवलोक्य पुस्तकके लेखककी ओरसे यह शङ्का रहती है कि शायद वह अप्रसन्न हों। मुझे इस अवलो. कनको लिखते समय उक्त दोनों शङ्काओंका भय नहीं है। मैं अपनी न्याय वृत्ति और मर्यादापर ही अधिक भरोसा रखता हूँ। अतएव मुझे आशा है कि तटस्थ वोचकोंको इस 'अवलोकन'पर ऐसी शङ्का करनेका मौका न मिलेगा। पुस्तकके सत्य-प्रिय लेखककी ओरसे तो मैं सर्वथा निर्भय हूँ। जिसने जैन शास्त्रोंका तात्त्विक, साहित्यिक, ऐतिहासिक भौर जीवन के प्रत्येक क्षेत्रमें उपयोगिताको दृष्टिसे चिरकाल तक मनन
SR No.010089
Book TitleJail me Mera Jainabhayasa
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages475
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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