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________________ * जेल में मेरा जैनाभ्यास # [ प्रथम जाने लगे। सब लोगोंने मिलकर श्रीनाम कुलकरजीकी आज्ञा प्राप्त करके श्री ऋषभदेवजी को अपना राजा स्थापित किया । इस प्रकार वे सबसे पहले राजा स्थापित किये गये । अतः वे 'आदिनाथ' कहलाये | २० श्री आदिनाथ राज पाटका उपभोग तथा आनन्द करने लगे। इसी दशा में उन्हें ख्याल आया कि मनुष्यों को कला तो सिखा दी, पर धर्मकी शिक्षा नहीं दी । अतः उन्हें धर्म की शिक्षा देनी चाहिये । धर्मकी शुरूआत दानसे होती है । यह विचार कर उन्होंने राजमहल में एक दान-शाला खोल दी और एक वर्ष तक सोनेकी मोहरोंका दान करते रहे। बाद में अपने पुत्रोंको राज-पाट बाँटकर स्वयं साधु-वृत्ति धारण कर विचरने लगे । भ्रमण करते-करते श्रीऋषभदेवजी हस्तिनागपुर नगर में पधारे । वहाँके राजा श्रेयांसकुमार थे । वे श्रीऋषभदेवजीके पुत्र बाहुबलिजी के पुत्र अर्थात् पोते थे । उन्होंने यह मालूम करके कि भगवान् श्रीऋषभदेवजी पहले तीर्थङ्कर ( संसारके मेरे बाबा ) पधारे हैं, बड़े प्रेमसे भगवान्‌ के श्रविग्रहका ईख रस द्वारा पारणा कराया । श्री ऋषभदेव भगवान् बहुत समय तक भ्रमण करते रहे । उन्होंने केवलज्ञानको प्राप्त करके निर्वाण पदको बाद में प्राप्त किया । यह पहले तीर्थकर हुए। तीर्थङ्करके गुण, अतिशय आदि का वर्णन आगे किया गया है।
SR No.010089
Book TitleJail me Mera Jainabhayasa
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages475
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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