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________________ खण्ड] * जैनधर्मानुसार जैनधर्मका संक्षिप्त इतिहास * २१ ___ इसी समयमें श्रीऋषभदेवजीके पुत्र भरतजीने युवावस्था में राज-पद प्राप्त किया । उन्होंने भरत-क्षेत्रके छह खण्डोंकी विजय की और वे पहले चक्रवर्ती बने । इन्होंने बादमें राज्य छोड़ केवलज्ञानी हो मोक्ष-पद प्राप्त किया। चक्रवर्तीकी ऋद्धि, सिद्धि, वैभव तथा पुण्यका वर्णन भी अगाड़ी किया गया है। इस प्रकार तीसरे आरेमें सिर्फ एक तीर्थकर श्रीऋषभदेवजी और एक चक्रवर्ती श्रीभरतजी हुए। यह श्रारा दो सागरोपमका होता है। चौथा धारा-इस आरेको दुष्षमा-सुषमा आरा कहते हैं। इस समयमें दुःख बहुत होता है और सुख थोड़ा । इसका समय-प्रमाण एक क्रोडाकोड़ी सागरमें व्यालीस हजार वर्ष कम होता है। तीसरे आरेके मुक़ाबिले इस समयके पुरुषों के संगठन, बनाव, रूपमें बहुत बड़ी कमी हो जाती है और यही हालत तमाम प्रकारके पदार्थों की हो जाती है। इस बारे में २३ तीर्थकर, ११ चक्रवर्ती, ६ बलदेव, . वासुदेव, और ६ प्रतिवासुदेव हुये। २३ तीर्थंकरोंके नाम, स्त्रीके नाम, आयुष्य, अवगाहना और गति निम्न प्रकार है
SR No.010089
Book TitleJail me Mera Jainabhayasa
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages475
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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