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________________ खण्ड * नववस्व अधिकार ३८६ -वैय्यावृत्य अर्थात् दस प्रकारके प्राचार्यादिकोंकी सेवा करना। १०-स्वाध्याय अर्थात् शाखोंकीवाचना-पृच्छना आदि करना। ११-ध्यान अर्थात् मनको एकाग्र करना । १२-व्युत्सर्ग अर्थात् कायके व्यापारका त्याग करना । ये पिछले छह तप 'आभ्यन्तर तप' कहलाते हैं । जो पुरुष अनशन, अवमौदर्य, वृत्तिपरिसंख्यान, रसपरित्याग, विविक्तशय्यासन और कायक्लेश, इन छह प्रकारके बहिरज तप तथा प्रायश्चित्त, विनय, वैय्यावृत्य, स्वाध्याय, व्युत्सर्ग और ध्यान, इन छह प्रकारके अन्तरङ्ग तपोंको कर सकते हैं, वे बहुतसे कोंकी निर्जरा करते हैं। ___ अनेक कर्मों की शक्तियोंके गलानेको समर्थ द्वादश प्रकारके तपोंसे बड़ा हुआ मनुष्यका जो शुद्धोपयोग है, वही-'भाव निर्जरा' है और भाव निर्जराके अनुसार नीरस होकर पूर्व में बंधे हुए काँका एक देश खिर जाना 'द्रव्य निर्जरा' है। _____ जो पुरुष कर्मों के निरोधसे संयुक्त है, आत्म-स्वरूपका जाननेवाला है, वह पर कार्योसे निवृत्त होकर आत्मकार्यका उद्यमी होता १--दस प्रकार के प्राचार्यादि ये है:"प्राचार्योपाध्याय तपस्वि-शैक्ष-ग्लान-गण-कुल-संघ-साधु-मनोज्ञानाम्।" -उमास्वाति। • "प्रायश्चित्तविनयवैयावृत्तिस्वाध्यायच्युसर्गध्यानान्युत्तरम्।" -ठमास्वाति ।
SR No.010089
Book TitleJail me Mera Jainabhayasa
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages475
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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