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________________ ** जेलमें मेरा जैनाभ्यास * [ तृतीय २ - श्रवमौदर्य अर्थात् भोजनकी अधिक रुचि होनेपर भी कम आहार करना । ३ - भिक्षाचर्या अर्थात् शुद्ध आहार आदिका लेना । ४ - रसपरित्याग अर्थात् मीठा, घृत, तेल आदिका त्याग करना । ५ - कायक्लेश अर्थात् वीर, गोदोहन, वश्र आदि आसन करना । ६- पड़िसंलीणता अर्थात् इन्द्रिय योग आदि कर्म-बन्धके कारणों से आत्म-निग्रह करना । ये छह तप 'बाह्य तप' कहलाते हैं + । ७- प्रायश्चित्त अर्थात् खाने-पीने, उठने-बैठने या अन्य किसी तरीसे कोई दोष लग गया हो तो आत्माको शुद्ध करनेके लिये आलोचना, वन्दना करना । देवक ८ - विनय अर्थात् गुरु आदिका भक्ति-भावसे अभ्युत्थानादि द्वारा आदर-सत्कार करना । जल ही ले सकते हैं । उद्दीप्त इन्द्रियोंको और मनको वशमें करनेके लिये मुनि इस तपका आचरण करते हैं। + " अनशनावमौदर्यवृत्तिपरिसंख्यानरसपरित्यागविविक्तशय्यासनकायक्लेशा बाह्य तपः” । —उमास्वाति ।
SR No.010089
Book TitleJail me Mera Jainabhayasa
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages475
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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