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________________ ३६० * जेलमें मेरा जैनाभ्यास * [तृतीय है, तथा अपने स्वरूपको पाकर गुणगुणीके अभेदसे अपने ज्ञानगुणको आपमें अभेद रूपसे अनुभव में लाता है। वह पुरुष सर्वथा प्रकार वीतराग भावोंकेद्वारा, पूर्वकालमें बँधे हुए कर्मरूपी धूलको उड़ा देता है अर्थात् कर्मोंको खपा देता है । मोक्ष बन्धका प्रतिपक्षी मोक्ष है अर्थात् उक्त चारों प्रकार के बन्धसे मुक्त होना - छूटना, उसीका नाम 'मोक्ष' है । मोक्षकी प्राप्ति केवलज्ञानपूर्वक है अर्थात पहिले केवलज्ञान हो जाता है, तब मोक्ष होता है। इस कारण पहिले केवलज्ञानकी उत्पत्तिका कारण कहते हैं । मोहनीय कर्मके क्षय होने के पश्चात् अन्तर्मुहूर्त्त पर्यन्त क्षीणकषाय नामका बारहवाँ गुणस्थान पाकर ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय, इन तीनों कर्मोंका नाश होनेपर केवलज्ञान की प्राप्ति होती है । केवलज्ञान होनेके पश्चात् वेदनीय, आयु, नाम और गोत्र, इन चार अघातिया कर्मोंका नाश हो जाना अर्थात् आगामी कर्मबन्धके कारणोंका सर्वथा अभाव और पूर्व संचित कर्मोकी सत्ताका सर्वथा नाश हो जाना ही मोक्ष है । "सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः ।" अर्थात् सम्यग्दर्शन युक्त ज्ञान और चारित्र ही मोक्षका मार्ग है। ज्ञान और दर्शन आत्मा के अनादि-अनन्त गुण हैं, मोक्ष होनेके बाद वे
SR No.010089
Book TitleJail me Mera Jainabhayasa
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages475
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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