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________________ खण्ड * भावनाएं * ३२७ अतिदुर्लभ है । इसकी दुर्लभताका बारम्बार चिन्तन करना 'बोधिदुर्लभ' भावना है। किस प्रकार 'भरत' चक्रवर्तीने अपने ६८ भाइयोंसे आज्ञा • माननेको कहा; किस प्रकार वे ऋषभदेवजीके पास गये और किस प्रकार वे ऋषभदेव भगवानका उपदेश सुनकर सम्यक्त्व. युक्त चारित्र अङ्गीकार कर मोक्ष गये । इत्यादि विचारना चाहिये। (१२) धर्मस्वाव्यातत्व-वस्तुका स्वभाव 'धर्म' कहलाता है। आत्माका शुद्ध निमल स्वभाव ही अपना धर्म है तथा दर्शन ज्ञान-चारित्र रूप वा अहिंसा रूप धर्म है: इत्यादि धर्मके स्वरूप को बारम्बार चिन्तन करना 'धमम्वाख्यातत्त्व' भावना है। किस प्रकार 'धर्मरुचि मास.क्षमनके पारने 'नागश्री ब्राह्मणी के गये; किस प्रकार उसने कटुक तुम्बका शाक वैरायाः किस प्रकार गुरुजीको दिखाया; किस प्रकार गुरुजीने निर्वध स्थान पर पठानको कहा: किस प्रकार चींटियाँ मरी; किस प्रकार अपने पंट को निर्वध स्थान जानकर खा गये और किस प्रकार शान्त भावसे धर्म भावना भात हुए काल करके सर्वार्थसिद्धि महाविमानमें देवता हुए । इत्यादि विचारना चाहिये। __ अनेक प्राणियोंने उपरोक्त एक-एक भावनाको भाते हुये मोक्ष को प्राप्त किया है । जो प्राणी अपना मनुष्य-जन्म सफल बनाना चाहते हैं, उनको उपरोक्त भावनाओंको सदा ध्याते रहना चाहिये। -
SR No.010089
Book TitleJail me Mera Jainabhayasa
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages475
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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