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________________ • मनुष्य-जीवनकी सफलता * २६१ - ४-वे हजामत नहीं बनवाते । एक वर्ष में दो बार अपने सर व डाढ़ीके बालोंका लौंच कर लेते हैं अर्थात् हाथसे उखाड़ लेते हैं। __५-उनकी विधिपूर्वक जो भोजन व जल मिल जाता है, उसे ही ग्रहण करते हैं। वे कोई साग-भाजी या फल नहीं खाते हैं और न कचा जल-कुये, नदी व तालाबका पानी पीते हैं। वे अचित्त आहार व अचित्त जल-गरम पानी लेते हैं। यदि उनके निमित्त. खाना बनाया जाय या जल गरम किया जाय तो वे उसे नहीं ग्रहण करते हैं। वे उसे अशुद्ध समझते हैं। सिर्फ दिन में ही खाते व पीते हैं। रात्रिमें कोई वस्तु ग्रहण नहीं करते हैं। ६-सदा नीचे देखकर चलते हैं और स्थानको प्रागेसे भाड़कर बैठते हैं। ताकि कोई चलता-फिरता जीव मर न जाय । रात्रिमें दीपक नहीं जलाते हैं। किसी प्रकारकी शोभा वगैरा नहीं करते हैं। किसीके घर नहीं बैठते हैं। किसी प्रकारका मेलातमाशा नहीं देखते हैं। किसी गृहस्थसे अपनी सेवा नहीं कराते हैं। किसी प्रकारका नशा, तम्बाक, पान-सुपारी आदि नहीं खाते-पीते हैं । स्वयं जाकर भोजन व जल लाते हैं। -बाईस प्रकारके परीषह* अर्थात् तकलीकोंको प्रसन्नता व शान्तिपूर्वक सहन करते हैं । जैसे-यदि नियमपूर्वक भोजन या * "पुत्पिपासाशीतोष्णदंशमशकनारम्यारतिबीच निषधाशय्याकोशवधवाजालाभरोगतृणस्पर्शमजसत्कारपुरस्कारप्रज्ञाज्ञानादर्शनानि ।" -उमास्वाति।
SR No.010089
Book TitleJail me Mera Jainabhayasa
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages475
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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