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________________ खण्ड * कर्म अधिकार * १२५ जाता है। इसी प्रकार कर्मोका चाहे-जैसा गाढ़ आवरण क्यों न हो, आत्माको कुछ-न-कुछ ज्ञान होता ही रहता है। ___ मतिज्ञानावरणीय-भिन्न २ प्रकारके मतिज्ञानोंको आवरण करनेवाले, भिन्न २ कर्मोको 'मतिज्ञानावरणीय' कहते हैं। मतिज्ञानके २८ भेद कहे हैं, पर दूसरी अपेक्षासे ३४० भेद होते हैं। उन सबोंके आवरण करनेवाले कर्म जुदा २ होते हैं। उन सब आव. रण करनेवालोंको 'मतिज्ञानावरणीय' कर्म कहते हैं। श्रुतज्ञानावरणीय-श्रुतज्ञानके १४ अथवा २० भेद कहे गये हैं, उनके आवरण करनेवाले कर्मोको 'श्रुतज्ञानावरणीय' कर्म कहते हैं। अवधिज्ञानावरणीय-अवधिज्ञानके ६ भेद कहे गये हैं, उनके आवरण करनेवाले कर्मोको अवधिज्ञानावरणीय' कर्म कहते हैं। मनःपर्यायज्ञानावरणीय-मनःपर्यायज्ञानके २ भेद कहे हैं, उनके आवरण करनेवाले कर्मोको 'मनःपर्यायज्ञानावरणीय' कर्म कहते हैं। केवलज्ञानावरणीय-केवलज्ञानके आवरण करनेवाले कर्मों को 'केवलज्ञानावरणीय' कर्म कहते हैं। ख-दर्शनावरणीय कर्मः चक्षुर्दर्शनावरणीय-आँखके द्वारा जो पदार्थोंका सामान्य धर्म-ग्रहण होता है, उसे 'चक्षुर्दर्शन' कहते हैं; उस सामान्य ग्रहणको रोकनेवाले कर्मको 'चक्षुर्दर्शनावरणीय' कर्म कहते हैं।
SR No.010089
Book TitleJail me Mera Jainabhayasa
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages475
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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