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________________ १२४ * जेलमें मेरा जैनाभ्यास * [द्वितीय अवधिज्ञान-इन्द्रिय तथा मनकी सहायताके बिना मर्यादाकोलिये हुये रूपवाले द्रव्यका जो ज्ञान होता है, उसे 'अवधिज्ञान' कहते हैं। मनःपर्यायज्ञान-इन्द्रिय और मनकी मददके बिना मर्यादाको लिये हुये संज्ञी (जिनके मन होता है)के मनोगत भावों अर्थात् मनकी बातोंको जाननेको 'मनःपर्यायज्ञान' कहते हैं । केवलज्ञान-संसारके भूत, भविष्य और वर्तमान कालके सम्पूर्ण पदार्थोका युगपत् ( एक साथ) जानना 'केवलज्ञान' कहलाता है। पहिले दो ज्ञानोंमें इन्द्रियों और मनकी सहायता लेनी पड़ती है। किन्तु अन्तके तीन ज्ञानोंमें इन्द्रिय और मनकी सहायताकी आवश्यकता नहीं है। ज्ञानके आवरण करनेवाले कर्मको 'ज्ञानावरण' अथवा 'ज्ञानावरणीय' कहते हैं । जिस प्रकार आँखपर पतले या मोटे कपड़े की पट्टी लपेटनेसे वस्तुओंके देखने में कम और ज्यादा रुकावट होती है, उसी प्रकार ज्ञानावरण-कर्मके प्रभावसे आत्माको पदार्थोके जाननेमें रुकावट पहुँचती है, किन्तु ऐसी रुकावट नहीं होती, जिससे आत्माको किसी प्रकारका ज्ञान ही न हो । जैसे सूर्य चाहे-जैसे घने बादलोंसे क्यों न घिर जाय तो भी उसका कुछ-न- . कुछ प्रकाश अवश्य ही रहता है । जिससे दिन-रातमें भेद सममा
SR No.010089
Book TitleJail me Mera Jainabhayasa
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages475
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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