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________________ [१०] इस प्रकार के शासन-भेद और भाचार्यों के मत-भेद की खोज या चर्चा किसी शास्त्र में भी पाई जाती है क्या ? किसी आचार्य ने किसी प्राचार्य की समालोचना की हो, किसी ने किसी शास्त्र के श्लोकों को क्षेपक कहकर अप्रमाण बताया हो, किसी ने किसी के मत को अमान्य ठहराया हो, किसीने वीरशासनमें भेद बताया हो तो प्रगट किया जाय ? शाखोंमें तो सभी प्राचार्योंने अपने पूर्व के आचार्यों को शिरोधार्य कर उन की रचना को आधार मान कर ही अपनी रचना की है। इस बात के प्रमाण तो प्रत्येक शास्त्र में देखे जाते हैं। दृष्टान्त के लिये एक श्लोक देना ही पर्याप्त है। यथा प्रभेन्दु-वचनोदार-चन्द्रिका-प्रसरे सति । मादृशाः क नु गण्यन्ते ज्योतिरिंगण-सन्निभाः॥ प्रमेय रत्नमाला के रचयिता आचार्य अनन्तवीर्य प्रमेय कमल-मार्तण्ड के रचयिता आचार्य प्रभाचन्द्र के लिये लिखते हैं कि "आचार्य प्रभाचन्द्र रूपी चन्द्रमाकी जहां उदार वचन रूपी चांदनी फैल रही है वहां खद्योत (जुगुनू ) के समान चमकने वाले मेरे सरीखे की क्या गणना हो सकती है ?" कितनी लघुता और महती श्रद्धा-पूर्ण मान्यता का उल्लेख है ? बस इसी प्रकार की मान्यता उत्तरोत्तर सभी आचार्यों की है। आदि पुराण के रचयिता श्री भगवज्जिनसेनाचार्य ने ग्रन्थ के आदि में सभी प्राचार्यों को श्रद्धाभक्ति के साथ स्मरण और नमन किया है। यही प्रक्रिया सभी शास्त्रों में पाई जाती
SR No.010088
Book TitleDigambar Jain Siddhant Darpan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages167
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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