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________________ [ ] हेतुत्रों से उनका खण्डन नहीं हो सकता है। इस लिये उन्हें सर्वश-आज्ञा समझ कर ग्रहण कर लेना चाहिये। क्योंकि वीतराग सर्वज्ञ के कथनमें अन्यथापना कभी नहीं आ सकता है। आजकल शासन-भेदके नाम से आचार्योंकी रचना में परस्पर मत-भेद सिद्ध करने का प्रयास किया जाता है। आज ग्रन्थान्तरों में ग्रन्थान्तरों के श्लोकों को देखकर उन्हें झट क्षेपक बताकर अमान्य ठहरा दिया जाता है, ऐसा करना भयंकर बात है। अनेक ग्रन्थों में प्राचार्यों ने सरलता से प्रकरण के श्लोक दूसरे ग्रन्थों के लिये हैं, इसके अनेक प्रमाण हैं। गोम्मटसार में ही प्राचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्त-चक्रवर्ती ने अनेक गाथायें दूसरे प्राचार्योंकी रख दी हैं, तो क्या क्षेपक कहकर वे अमान्य ठहराई जा सकती हैं ? कभी नहीं। परन्तु पाठकोंको यह बात ध्यानमें रखना चाहिये कि न तो वीरशासनमें कोई भेद पाया जाता है और न आचार्योंकी रचनामें परस्पर कोई मत-भद है। किन्तु झूठे एवं निराधार प्रमाणों से वे सब बातें सिद्ध की जाती हैं। वास्तव में कोई बात जब रहस्यज्ञ एवं तत्व-मर्म विद्वानों की विचारश्रेणी में आती है तो फिर वीर-शासन का भेद और प्राचार्यों का मत-भेद निःसार एवं बालू पर खड़ी की गई दीवाल के समान निराधार प्रतीत होता है। इस बात पर भी विद्वानों को ध्यान देना चाहिये कि
SR No.010088
Book TitleDigambar Jain Siddhant Darpan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages167
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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