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________________ [८] कि किस समय पर और किस प्राचार्य ने सम्यग्दर्शन का क्या लक्षण माना है।" हमने उनसे यह पूछा कि एक वर्ष की खोज में आपने सम्यग्दर्शन के लक्षण में समय भेद और प्राचार्यभेद से कोई भेद पाया क्या ? वे बोले कि "अभी खोज समाप्त नहीं हुई है। अन्तमें निष्कर्ष निकल सकता है।" इस प्रकार की खोज से यह परिणाम भी निकाला जा सकता है कि जो सम्यग्दर्शन का लक्षण 'तत्वार्थश्रद्धान रूप है। उसके स्थान में तर्क-वितर्क एवं परीक्षापूर्वक वस्तु को ग्रहण किया जाय ऐसा कोई लक्षण भी मिल जाय तो फिर सम्यक मिथ्यात्व का विकल्प ही उठ जाय। वैसी अवस्था में आगम का बन्धन बाधक नहीं होकर विचार-स्वातन्त्र्य-क्षेत्र बहुत विस्तृत बन सकता है। हमारे वीतराग महर्षियों ने सर्वज्ञ-प्रणीत, गणधरकथित, आचार्य परम्परागत एवं स्वानुभव-सिद्ध तत्वों का ही विवेचन किया है। इस लिये उन्हें यदि परीक्षा की कसौटी पर रक्खा जाय तो वे और भी दृढ़ता एवं मौलिकता को प्रगट करते हैं। परन्तु परीक्षा करने की पात्रता नहीं हो तो उन सिद्धांतों को शास्त्रों की आज्ञानुसार ग्रहण करना ही बुद्धिमत्ता है। यथा सूक्ष्म जिनोदितं तत्वं हेतुभिर्नैव हन्यते । आज्ञासिद्धच तद्ग्राह्य नान्यथा-वादिनो जिनाः॥ अर्थात्-जिनेन्द्रदेव द्वारा कहे हुए तत्व सूक्ष्म हैं।
SR No.010088
Book TitleDigambar Jain Siddhant Darpan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages167
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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