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________________ [७] पुराण शास्त्र हैं। उनके आधार पर हम उन सब बातों को प्रमाणभूत समझते हैं। दूसरे चरणानुयोग, करणानुयोग शाल हैं वे सब उस प्रकार की वस्तु-व्यवस्था के परिचायक हैं। जहां वीतरागी प्राचार्यों ने अपनी अत्यन्त सरलनिरभिमान कृति से स्वरचित गम्भीर से गम्भीर शास्त्रों में भी संवत् आदि का उल्लेख तक नहीं किया है, यहां तक कि किन्हीं किन्हीं प्राचार्यों ने अपना नाम तक नहीं दिया है, वहां आज उस शास्त्र के तत्व सिद्धान्त को छोड़कर केवल उसके सम्वत् की आगे-पीछे की खोज बना कर उन शास्त्रों एवं उनके रचयिताओं को अप्रमाण ठहराया जाता है ? यह क्या तो खोज है ? और क्या पाण्डित्य है ? और क्या सदुपयोग रूप इसका फल है ? इन बातोंपर अनेक विद्वान नहीं सोचते हैं। गतानुगतिक बनकर वे भी एक नया आविष्कार समझकर उस की पुष्टि में अपनी भक्तिपूर्ण श्रद्धाञ्जलियां प्रगट करते हैं। प्रकरणवश इस प्रकार की साहित्य-खोज की शैली का एक नमूना हम यहां पर उपस्थित करते हैं दो वर्ष हुए हम कार्यवश नागपुर गये थे। हमारे साथ श्री सेठ तनसुखलाल जी काला बम्बई भी थे। खंडेलवाल दि० जैन विद्यालय में श्री पं० शांतिराज जी न्याय काव्यतीर्थ के पास एक विद्वान् न्यायतीर्थं बैठे थे। परिचयमें उन्होंने कहा "कि एक वर्षसे मैं सम्यग्दर्शनपर खोजपूर्ण इतिहास लिख रहा हूं
SR No.010088
Book TitleDigambar Jain Siddhant Darpan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages167
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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