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________________ त्रियकंड तिलांजली देकर मकल संसार के श्रेय हेतु प्रथम सामायिक के पांच महाव्रतों भीषण प्रतिज्ञा की त्याग-भूमि पर क्षमा खड़ग लेकर खड़े हो गये। भारत के महान धाराशास्त्री मर अल्लाड़ी कृष्णा स्वामी अय्यर की एक तार्किक दलील याद आती है- उन्होंने कहा था कि "मैं धाराशास्त्री होने से धार्मिक तत्वज्ञान में विशेष अध्ययन का लाभ नहीं उठा सका,किन्तु Logically (तार्किक) ढंग मे कहना पड़ता है कि मृग और गाय आदि प्राणी जो तृण भक्षण से अपना जीवन व्यतीत करते हैं, वे यदि माम भक्षण से विमख बनें तो उस में विशेषता ही क्या? तत्व तो वहां है कि सिंह का बच्चा मांस भक्षण का विरोध करे। उनके कहने का आशय यह था कि धन, कांचन, ऋद्धि,सिद्धि और ऐश्वर्य के झले में झलता हआ और खनी संस्कृति के भरे हए क्षत्रिय कल के वातावरण में चमकती हई तलवार के तेज में तल्लीन वालक कल परम्परा की कलदेवी के ममान खनी खंजर के विरुद्ध महान आंदोलन करने के लिये सारी राजसीय ऋद्धि, मिद्धि एवं सम्पत्ति को मिट्टी के समान मान कर और भोग को रोग तल्य समझकर त्याग करता हआ योग की भमिका में खनी वातावरण को शांतिमय बनाने के लिये वनखंड और पर्वतों की कद्राओं में निस्पृह वन कर सारा जीवन व्यतीत करे। मात्र दिनो तक ही नहीं किन्तु महीनों और वर्षों तक भूपति भृखपति बन कर भटकता फिरे। माढ़े बारह वर्ष की घोर संयम यात्रा में अंगलियों पर गिने जाने वाले नाम मात्र दिनों में रूखे सूखे टकड़ो से पारणे करे और सारा काल अहिंमा के आदर्श सिद्धान्तों को पालन करने में निमग्न रहे। उन की यह घोर तपस्या मंयम आदि अमल्य जीवन यात्रा के परदे में बड़ा भारी रहस्य था जिसमें मात्र मानव समाज का ही नहीं अपितु प्राणिमात्र के श्रेय का लक्ष्य था।" इन का यह तार्किक अनुमान वड़ा ही सुन्दर प्रतीत होता है। दया के परम्परागत संस्कारों वाले कल में जन्म लेने वाला व्यक्ति दया का पालन और उस की पष्टि के लिये वातें करे तो स्वाभाविक है तथा भोग सामग्री के अभाव में वैराग्य के वातावरण का अमर अनेकों पर संभव है। किन्तु राजकल की ऋद्धि और ऐश्वर्य के सागर में मे वाहर कूद कर त्यागम में आने वाले तो कोई आलोकिक व्यक्ति ही नजर आते हैं। जो उन्होंने उपसर्ग और परिषह सहन किये उन की कथनी करते हुए यह कायर हृदय कांपता है। धन्य है उस महावीर को जिस के हृदय में मित्रों के श्रेय से भी शत्रुओं के स्नेह का स्थान प्रथम था। उस महाभाग की क्या बात करें। गौशालिक के, चंडकौषिक के, म्वाले के, शलपाणि के, तथा संगम आदि के
SR No.010082
Book TitleBhagwan Mahavir ka Janmasthal Kshatriyakunda
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1989
Total Pages196
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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