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________________ १६ महावीर के सिद्धांत, गरिमा मन-वचन और काया मे किसी भी प्राणी के अधिकारों पर त्रापन माग्ना। किमी को अहितकर वचन न बोलना। बिना आज्ञा के किसी की तृण जैसी वस्तु को भीन लेना। नैष्ठिक ब्रह्मचर्य के बल से सव इन्द्रियों का दमन करना। किसी वस्त पर मूच्र्छा न रखना तथा संग्रह न करना। देश-विरांत में उपर्युक्त का सर्वथा पालन करने का सामर्थ्य न होने से उदासीन भावपर्वक जितने प्रमाण में हो सके उतने प्रमाण में निरन्तर पालन करने की चेष्टा करना। प्रथम मर्व-वर्गत मामायिक के पालने वाले श्रमण, अणगार, ति, निग्रंथ मनि अथवा माध कहलाते हैं और मर्यादित देशविरति पालने वाले श्रमणोपामक, श्राद्ध, थावंक और गहम्थ कहलाते हैं। दोनों में आचार-भेद होते हा भी विचार भेद कदापि नहीं है। दोनों के माध्य की पराकाष्ठा अहिंसा, मत्य, अस्तेय,ब्रह्मचर्य और निप्परिग्रह में है। उन्हें ही क्रमशः महावन अणव्रत कहते हैं। इस विश्वविर्भात ने जिस महान पवित्र सिद्धांत का उपदेश दिया था उसका आचरण उनके गेम गेम में था- पर्णरूप से आत्मरमणता थी। जो कष्ट भी व जगत के प्राणियों को आचरण के लिय कहने थे उसका वे स्वयं भी पालन करने थे। हम इतिहास और नन्वज्ञान के तटस्थ एव ममक्ष विद्यार्थी होने के नातं मर्वप्रथम तत्कालीन भारत की ऐतिहासिक पर्गिस्थति पर अवलोकन करते है तो डा. रमेशचन्द्रदत्त जैसे महान निहामन की विचारधाग अपने मामन रखते है। वे कहते हैं कि इंमा पर्व छठी शताब्दी में आयंवतं का यह हाल था कि धर्म की यथार्थ भावना नाट हो चकी थी। वर्णाश्रम धर्म की व्यवस्था म्खलना पा चकी थी और मानव ममार में मन्यता की प्रधानता नाट हो चकी थी। उस स्थान को म्वार्थ ने ले लिया था। जिस के वश हो कर सभ्य और शिक्षित जाति भी अमानपिक कतव्यों के करने केलिये कटिबद्ध हो गई थी। प्रजा को धमाधना म फंमाने के लिये उनके मेधा और प्रजा पर प्रवल अत्याचार किया जाना था। मष्टि के अहिमान्मक अकाट्य नियमा का उलघन करने में भी निभंयना को स्थान दिया जाता था और महामद्राणी म्प चार अगल प्रमाण जिह्वा की लालपना की पति में सख्यावद्ध निगपगधी और जगत के महान उपयोगी उपकारी प्राणियों के रक्त के स्वापर खनी खजगे द्वाग भरे जाने थे। धर्म के सिद्धांतों को तोड़-मगेड कर ऐसे अन्धविश्वास के "नियोगपर्यनयोगानहमनेर्वचः।" जैसे मत्र निधार किये जाते थे। ऐसे कटोकटी के ममय में एक विश्वोपकारक विर्भात की प्रतीक्षा बड़ी आतरता में हो रही थी। भारत का भाग्य वड़ा प्रवल था कि अनुपम महाविर्भात प्रगट हो ही गई। इक्ष्वाक जैसे वैभव, ऐश्वयं और मौद्ध संपन्न ज्ञातृ कल के गजकमार होने हार भी उस ऋद्धि, मिद्धि और सम्पत्ति को तण ममान गिनते हा
SR No.010082
Book TitleBhagwan Mahavir ka Janmasthal Kshatriyakunda
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1989
Total Pages196
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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