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________________ महावीर के सिद्धात गरिमा बनके घोरातिघोर उपसगों में मेरु की तरह धीर और सागर की तरह गभीर बनकर अटवियों में, पर्वतों की कन्दराओं में गरजते हुए सिंह, चीते, भाल आदि भयंकर प्राणियों के बीच में, वर्षा ऋतु का घनघोर घटाच्छादित अमावस्या की अंधेरी रात्रि में चमकती हुई बिजली के उद्योतं में फां-फँ करते हुए विषधर, मणिधर के बीच में और मृतक श्मशान भूमि पर जलते हुए कलेवरों को भक्षण करते हए भत-प्रेतयोनि के यक्षों और राक्षसों के बीच में ज्ञान-ध्यान की अस्खलित धारा में आरूढ़ होकर पवित्र भावनाओं द्वारा भवटवी में भयंकर ताप से पीड़ित प्राणियों को अपनी प्रशांत मुद्रा का जो प्रश्म रस रूपी सुधारस पिला कर शांति पहुंचा रहा था। उस महान अवधूत योगी के चरणारविन्द्र में शिरसा वन्दन के सिवाय और क्या कहूं। आचार्य श्री हेमचन्द्र उस कारुण्य हृदय का चित्र-चित्रण करते हुए कहते हैं कृतापराधेsपि जने कपामंथर तारयोः। ईषद वाष्पापोत, श्री वीरजिननेत्रयोः।।१।। छह महीनों तक घोरातिघोर प्राणान्त कष्ट देने वाले संगम नामक दानव के श्रेय की करुणा से अश्रुधारा बहाने वाले हे योगी! तेरे दया रूप महासागर का माप कैसे दर्शाऊं, तेरी अकल-कला के सामने मेरी काव्य कला क्या काम आ सकती है? कहने का आशय यह है कि जितना भी इस महापुरुष के जीवन पर कहें कम है। शास्त्र में कहा है कि आप एक क्षमा में ही वीर नहीं थे- किन्तु दानवीर, दयावीर, शीलवीर, त्यागवीर, तपवीर, धीरवीर, कर्मवीर, जानवीर, और चरित्रवीर आदि सर्वगणों में शिरोमणि होने से उनका वर्धमान नाम गौन होकर महावीर के नाम से प्रख्यात हुआ- यानि जन्म नाम वर्धमान था, परन्त वीरता के क्षेत्र में अतलनीय, अद्वितीय तथा अनुपम होने से गणाश्रित नाम महावीर पड़ा। जब वे अपनी आत्मा को शुद्ध करके ईश्वरीय महाशक्तियों का आविर्भाव करके कैवल्य पद पर आरूढ़ हुए तब पहले-पहल वर्णाश्रम व्यवस्था केलिए अर्थात क्षत्रिय, ब्राह्मण, वैश्य और शूद्रों को अपने-अपने कर्तव्यों का भान कराने के लिये समवसरण में विराजमान होकर अपना सत्य धर्म संदेश प्रकट किया था। उस समय मानव समाज की बागडोर ब्राह्मणों के हाथ में थी, इसलिए श्री महावीर प्रभु ने सर्वप्रथम अपने तप, तेज और ज्ञान के प्रभाव से ब्राह्मण वर्ग के महारथी इन्द्रभूति, सुधर्मा आदि ४४११ ब्राह्मणों का हृदय पलटा किया, पश् बलिदान की मनोवृति को निवृत्त करके स्वइन्द्रियदमन तथा विश्व के प्राणीमात्र से मैत्री, कारुण्य आदि भावना का गुरुमंत्र पढ़ा कर
SR No.010082
Book TitleBhagwan Mahavir ka Janmasthal Kshatriyakunda
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1989
Total Pages196
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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