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________________ -- १२ धर्मोपदेश - तीर्थ आगम रचना जन्म में पुरुष हैं वह अगले जन्म में भी पुरुष होता है । ६. अरुपी आत्मा को रूपी कर्म का बन्ध कैसे ७. देवता है या नहीं । ८. नरक है या नहीं? ९. पुण्य-पाप है या नहीं ? १०. परलोक के विषय में ११. मोक्ष के विषय में शंकाएं थीं। ये ११ पंडित और इनके ४४०० शिष्य वैदिक कर्मकाण्डी धर्मानुयायी थे । इसलिये भगवान ने इनकी शंकाओं का समाधान भी उन के मान्य वेदों के माध्यम से ही किया। शंकाओं की युक्ति पुरस्सर समाधान पा कर इन ११ विद्वानों ने अपने समस्त ४४०० विद्वान शिष्यों के साथ अपने आप को भगवान महावीर के चरणों समर्पित कर दिया और प्रभु ने भी इन सब को मुनि दीक्षाएं दे कर अपने शिष्य बनाये। उन ११ मुख्य शिष्यों को गणधर पद से विभूषित किया। इसी अवसर पर महिलाओं में चन्दनबाला आदि अनेकों महिलाओं को पाच महाव्रतों से विभूषित कर साध्वी- संघ की स्थापना की। अनेकों स्त्री-पुरुषों ने अणुव्रत आदि बारह व्रतों को स्वीकार कर श्राविका श्रावक (गृहस्थ ) धर्म को स्वीकार किया। इस प्रकार भगवान महावीर ने चतुर्विध संघ की स्थापना कर जंगम - धर्मतीर्थ की स्थापना की, और द्वादशांगमयी आगमों की देशना से इस स्थावर तीर्थ का प्रचलन किया और तीर्थंकर बने। क्योंकि ( तीर्थंकरोति इति तीर्थंकर' : इति वचनात् ) । महावीर भगवान ने अर्धमागधी जो उस समय मगध जनपद तथा इसके निकटवर्ती प्रदेश की लोकभाषा थी उसमे अर्थ से उपदेश दिया ताकि सर्वसाधारण प्रवचनों को समझकर धर्ममार्ग को सरलता से स्वीकार कर सकें। भगवान के प्रवचनों को गणधरों ने समवसरण में साक्षात् श्रवण कर उनकी सूत्रों में अर्धमागधी भाषा में ही रचना की। जो गणिपिटक (द्वादशांग) के नाम से अद्यपि प्रख्यात है। भगवान की इस द्वादशांग वाणी को भी तीर्थ कहा जाता है। तीर्थ शब्द की व्युत्पति 'तीर्यते इति तीर्थः' अर्थात् जो इस ससार में भव- भ्रमण रूपी सागर से आत्मा को तारे वही सच्चा तीर्थ है। अतः भगवान का प्रवचन रूपी आगम (आप्त वचनात् आविर्भूतं आगमः) भगवान का धर्म प्रवचन भव्यात्माओं को संसार से तिराने वाला है और जो प्राणी उसे श्रद्धा से स्वीकार कर आचरण में लायेगा वह निश्चय ही सर्वकर्मों को क्षय कर शाश्वत सुखदाता मोक्ष-निर्वाण प्राप्त करेगा । इसलिये - १. चुतविधि - साधु-साध्वी श्रावक-श्राविका रूप धर्म-संघ और भगवान के प्रवचन संकलन रूप आगमों को तीर्थ की संज्ञा दी गई है | तीर्थंकर जब समवसरण में विराजमान होते हैं तब इस तीर्थ को "नमो तित्थस" (तीर्थ को नमस्कार हो) कहकर धर्म देशना के लिए सिंहासन पर विराजमान होते हैं।
SR No.010082
Book TitleBhagwan Mahavir ka Janmasthal Kshatriyakunda
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1989
Total Pages196
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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