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________________ क्षत्रियकुंड १३ भगवान महावीर की वाणी पर आश्रित साहित्य गणधरों द्वारा संकलित (द्वादशांगी) बारह अंगों के नाम- १. अचारांग, २. सूत्रकृतांग, ३. स्थानांग ४. समवायांग ५. व्याख्याप्रज्ञप्ति ( भगवती), ६. ज्ञाताधर्मकथांग, ७. उपासकदसा, ८. अन्तकृतदसा, ९. अणुत्तरोपपातक, १०. प्रश्नव्याकरण, ११. विपाकसूत्र १२. दृष्टिवाद। यह सब साहित्य अंगप्रविष्ट कहलाता है और गणिपिटक के नाम से भी प्रसिद्ध है। इनमें से १२वें अंग दृष्टिवाद का विच्छेद ( नष्ट) हो गया है। इसके १४ विभाग थे जो पूर्व के नाम से कहे जाते थे । चौदह पूर्वधरों (संपूर्ण सार्थ द्वादशांगी) के ज्ञाता श्रुतकेवलयों, दसपूर्वधरों (चारपूर्व कम द्वादशाग बाणी के सार्थ मुनियों ने जिन शास्त्रों की रचनाएं की हैं, वे अंगबाहु आगम कहलाते हैं। इन अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य आगमों की संख्या श्री नन्दी - सूत्र आगम में ८४ कही है। उन में से वर्तमान में ४५ आगम विद्यमान हैं। जो श्वेतांबर जैन (मूर्तिपूजक) परम्परा के पास आज भी सुरक्षित हैं। इन पर गीतार्थ जैनाचर्यों ने वृत्ति, चूर्णि नियुक्ति, भाष्य, टीकाओं की रचनाएं प्राकृत संस्कृत भाषाओं में विस्तार से लिखी हैं। जो पंचागी के नाम से प्रसिद्ध है। विद्यमान सुरक्षित आगम साहित्य को वीरान ९८० में उस समय के विद्यमान समस्त जैन मुनिराजों ने वल्लभीनगर (सौराष्ट्र) में एकत्रित होकर जो भगवान महावीर के समय से लेकर आज तक गुरु परम्परा से प्रवाह रूप उन के कंठस्थ आगमवाचना चली आ रही थी. सर्व सम्मति से ताड़पत्रों पर लिपिबद्ध कर लिया गया। दिगम्बर संप्रदाय ने भी स्वीकार किया है कि आगम की व्याख्या सनिश्चित है- 'जो केवली या श्रुत- कंवली ने कहा हो या अभिन्न दमपवी (११ अंगों तथा १२ वें अंग के दस पूर्वो के अर्थ सहित ज्ञान) ने कहा हो, वह आगम है। ' तथा उनका अनुसरण करने वाला अन्य जितना भी कथन है वह भी आगम है। इस संप्रदाय की मान्यता है कि सव अग- साहित्य क्रमशः अपने मूल रूप में विलप्त हो गया है। इसलिए महावीर के बाद सातवी आठवीं शताब्दी मे ऐसी स्थिति उत्पन्न हो गई कि केवल कुछ मुनियों को उन आगमों (आचारांग आदि) का मात्र आशिक ज्ञान रह गया जिनके आधार से समस्त (दिगम्बर) जैन शास्त्रों, पराणों की स्वतंत्र रूप से नयी शैली से विभिन्न देशकालानुसार प्रचलित प्राकृत (संस्कृत) आदि भाषाओं में रचना की गयी । " श्वेतांबर जैन अनुश्रुति के अनुसार श्रुत- केवली चतुर्दश वंधर आचार्य श्री भद्रबाहु स्वामी के बाद (लगभग ३०७ ईसा पूर्व भगवान महावीर के लगभग
SR No.010082
Book TitleBhagwan Mahavir ka Janmasthal Kshatriyakunda
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1989
Total Pages196
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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