SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 46
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ क्षत्रियकंड सम्पर्क होना यही मासव है। उस सम्पर्क या आसव से ऐसे सम्बन्ध का उत्पन्न होना जिसे आत्मा का शुद्ध स्वरूप ढक जावे और उसके ज्ञान-दर्शन-चरित्रात्मक गुण कठित हो जावें उसे बन्ध या कर्मबन्ध कहते हैं कर्म बन्ध से जो जीव को सख दुख का अनुभव होता है वह शभ अशभ कर्म बन्ध के कारण से होता है। जिन्हें पुण्य-पाप की संज्ञा दी गयी है। ये दोनों बन्ध तत्व में ही आ जाते हैं। जिन संयम रूप क्रियाओं व साधनाओं द्वारा इस जीव व अजीव के सम्पर्क को रोका जाता है उसे संवर कहते हैं। जिन व्रतों और तप द्वारा संचित कर्म बन्ध को जरित किया जाता है और विनष्ट किया जाता है उसे निर्जरा कहते हैं। जब ये कर्म निर्जरा की प्रक्रिया पूर्ण रूप से सम्पन्न हो जाती है तब वह जीव अपने शुद्ध स्वरूप को प्राप्त कर लेता है। तब वह मक्त हो जाता है उसे निर्वाण मिल जाता है। यह मोक्ष तत्व का कार्य है। इस प्रकार हम देख सकते हैं कि उक्त जीव और अजीव की पूर्ण व्याख्या में सष्टि का पदार्थ विज्ञान या भौतिक शास्त्र आ जाता है। आसव वन्धतत्व में मनोविज्ञान का विश्लेषण आ जाता है। संवर और निर्जरा तत्वों के व्याख्यान में समस्त नीति व आचार का समावेश आ जाता है। मोक्ष के स्वरूप में जीव के उच्चतम आदर्श ध्येय और विकास का प्रतिपादन हो जाता है। केवल ज्ञान में इसी बोध-सबोध का पूर्णतः व्यापक और सूक्ष्मतम स्वरूप समाविष्ट है धर्मोपदेश-धर्मतीर्थ स्थापना और आगम रचना केवलज्ञान प्राप्त कर भगवान महावीर मगध जनपद की पावापरी में जाकर देवों द्वारा निर्मित समवशरण (व्याख्यान मण्डल) में विराजमान हए धर्मप्रवचन सुनने के इच्छक राजा प्रजा गण देव देवियां आदिं वहां आ कर एकत्रित हुए। और भगवान ने उन्हें पूर्वोक्त तत्वों का स्वरूप समझाया तथा जीवन के सुखमय आदर्श प्राप्त करने हेतु गृहस्थों को अणुव्रत आदि बारह व्रतों, त्यागियों के लिए पांच महाव्रतों का उपदेश दिया जिनका पहले वर्णन किया है। इस समवशरण में क्रमशः एक-एक करके ग्यारह ब्राह्मण जो वेद-वेदांगादि चौदह विद्याओं के दिग्गज विद्वान थे अपने चवालीस सौ शिष्यों के साथ अपनी-अपनी शंकाओं का समाधान पाने के लिए भगवान महावीर के पास आ उपस्थित हए उनके नाम १. गौतम गोत्रीय इन्द्र भति २. अग्निति ३. वायभूति (तीनों सगे भाई) ४. व्यक्त, ५. सुधर्मा ६. मंडित ७. मौर्यपुत्र ८. अंकपित ९. अचलभाता १०. मेतार्य तथा ११. प्रभास। प्रत्येक को क्रमशः एक-एक शंका थी। १.जीव की २. कर्म की ३. वही जीव वही शरीर ४. पांच भत ५. जो इस
SR No.010082
Book TitleBhagwan Mahavir ka Janmasthal Kshatriyakunda
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1989
Total Pages196
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy