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________________ क्षत्रियकंड १४७ २. जब तक वज्जि संगठित होकर मिलते रहेंगे, संगठित होकर उन्नति करते रहेंगे तथा संगठित होकर कर्तव्य-कर्म करते रहेंगे। ३. जबतक अप्रज्ञप्त (अस्थापित) विधाओं को स्थापित करते रहेंगे, स्थापित विधाओं का उल्लंघन नहीं करेंगे तथा पूर्वकाल में स्थापित प्राचीन वज्जि विधानों का अनुसरण करते रहेंगे। ४. जबतक वे बज्जि-पूर्वजों का तथा नागरिकों का सम्मान पूजा. समर्थन करते रहेंगे और उन के वचनों को सुनकर मानते रहेंगे। ५. जब तक वे वज्जिकल की महिलाओं का सम्मान करते रहेंगे और कोई भी कुलस्त्री, कुलकुमारी उनके द्वारा बलपूर्वक अपहृत या निरुद्ध न की जाएगी। ६. जब तक वे नगर या नगर के बाहर वज्जि चैत्यों (जिन-मंदिरों) का आदर सम्मान करते रहेंगे। पूर्ववत सत्कार बहमान पूजादि करते रहेंगे और पहले किये गये धर्मानुष्ठानों की अवमानना न करेंगे। ७. जब तक वज्जियों द्वारा अरिहंतों की रक्षा-सुरक्षा, समर्थन किया जाता रहेगा तबतक वज्जियों का पतन नहीं होगा, उनका कोई भी बालबांका न कर सकेगा। उन्नति और उत्थान ही होता रहेगा। आनन्द को इसप्रकार बताने के बाद बद्ध ने अजातशत्र, के मंत्री वस्सकार से कहा कि मैंने ये कल्याणकारी सात धर्म वज्जियों को वैशाली में बताये हैं। तब वस्सकार मंत्री ने बद्ध से कहा कि हे गौतम! तो क्या तब तक वज्जियों को नहीं जीत सकते? जबतक कूटनीति द्वारा उनके संगठन को तोड़ नहीं दिया जाता? बुद्ध ने उत्तर दिया कि तुम्हारा विचार ठीक है। इसके बाद मंत्री वापिस चला गया और सारी बात अजातशत्रु से कह दी। उपर्युक्त विवरण से वैशाली गणतंत्र की उत्तम व्यवस्था, अनुशासन, सच्चरित्रता, संगठन एवं धनिष्ठा की पुष्टि होती है। इससे स्पष्ट है कि अरिहंतों और जैनचैत्यों के उपासक होने से वे जैनधर्मानुयायी थे। अतः ध्यानीय है कि २६०० वर्ष के प्राचीन गणतंत्रों में वैशाली गणतंत्र श्रेष्ठ, सर्वोत्कृष्ट था। वज्जियों, लिच्छिवियों कुछ अन्य गणों ने भी इसे महान बनाया था। उनके जीवन में आत्मसंयम की भावना थी। वे लकड़ी के तख्त पर मोते थे और वे सदैव कर्तव्यनिष्ठ थे। यह सब जैनधर्म का ही प्रताप था। जब तक उन में गण रहे तब तक उन का कोई बालवांका न कर मका। वे वज्जि अरिहंतों (जैनतीर्थकरों) उनके मंदिरों के उपासक थे, वे व्रात्य क्षत्रिय थे। वे जैन धर्मानुयायी थे। उन के आचरण पर जैनधर्म की अमिट गहरी छाप थी।
SR No.010082
Book TitleBhagwan Mahavir ka Janmasthal Kshatriyakunda
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1989
Total Pages196
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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