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________________ १०२ बौद्ध काल में पानी को सूचना दी थी। यहां खुदाई करने पर पूर्व से पश्चिम की ओर जानेवाली एक मोटी दीवार है.यह पक्की इंटों की बनी है। इसकी ईंट ५४९/ २ इंच की है। दीवार के पश्चिमी छोर पर एक छोटे स्तूप के अवशेष पाए गए हैं। इसकी ईंटें इधर-उधर बिखरी पड़ी थीं। जिसका ऊपरी भाग योल था उसके बीच में एक चौकोर छेद था। कनिंघम का मत है कि यह स्तूप के ऊपर की ईट रही होगी। कोलवा, बनिया और वसाढ़ से पश्चिम में न्योरीनाला का पुराना घाट बहत दर तक चला गया है। अब इसमें खेती होती है। . यह जनश्रुति प्रसिद्ध है कि प्राचीन वैशाली के चारों कोणों पर चार शिवलिंग स्थापित थे।इस का आधार क्या है कहा नहीं जा सकता। इसके सम्बन्ध में कोई प्रमाण भी उपलब्ध नहीं है। उत्तरपूर्वी महादेव जो कृपनछपरागाच्छी में है वह वास्तव में बुद्ध की मूर्ति है जो नागार्जुण है। उत्तरपश्चिम में एक संगमरमर का लिंग बना हुआ है। यह बिल्कुल आधुनिक है इन दोनों को यहां की जनता बड़ी श्रद्धा भक्ति भाव से पूजती है। बौद्ध यात्रियों के काल में वैशाली बद्ध की अन्तिम यात्रा के कथन के बाद लोगों ने यह स्तुप बनवाया था। यहां से पश्चिम में तीन चार ली की दूरी पर एक स्तूप है। बुद्ध के परिनिवर्णि से सौ वर्ष बाद वैशाली के भिक्षुओं ने विनयदशशील के विरुद्ध आचरण किया था। इस स्थान से चार योजन. चलकर पांच नदियों के संगम पर पहुंचे। आनन्द मगध से अपने परिनिर्वाण केलिए वैशाली को चले, देवताओं ने अजातशत्रु को सूचना दी। वह तुरन्त रथ पर बैठकर सेना के साथ नदी पर पहुंचा। जब वैशाली के लिच्छिवियों ने आनन्द का आगमन सुना तो उन्हें लेने केलिए वे भी नदी पार पहुंचे। आनन्द ने सोचा कि आगे बढ़ता हूं तो अजातशत्रु बूरा मानता है यदि लौटता हैं तो लिच्छिवी रोकते हैं। परिणामस्वरूप आनन्द ने नदी के बीच ही तेजोकसिन (तेजाकृत्सन) योग के द्वारा परिनिर्वाण लाभ किया। इनके शरीर को दो विभागों में विभक्त कर एक-एक दोनों तटों पर पहुंचाया गया। दोनों राजाओं को आधा-आधा शरीर मिला। वे लौट आये और अपने स्थानों पर स्तूप बनवाये। युवांगच्यांड ने लिखा है कि इस (वैशाली) राज्य का क्षेत्रफल लगभग ५००० ली (एक हजार मील) है। भूमि उत्तम तथा उपजाऊ है, फल फल बहुत अधिक होते हैं। विशेषकर आम और मोच (केला) अधिकता से होते हैं। महंगे बिकते हैं। जलवायु सहज और मध्यम है। मनुष्यों का आचरण शुद्ध और सच्चा
SR No.010082
Book TitleBhagwan Mahavir ka Janmasthal Kshatriyakunda
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1989
Total Pages196
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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