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________________ बौद्ध तथा जैनधम विकार मनुष्य यह तो की कल्पना करता है परिवर्तनशील है । इसलिए इस दु खप्रचर ससार म या सांसारिक पदार्थों में सुख तो राईभर है मगर दुख पवत के बराबर है। फिर वह राईभर सुख भी स चा सुख नही ह सुख का सुखाभास है। एसी स्थिति म को सोचना चाहिए कि वह कौन-सा काय है जिससे म दुख से बच सकें । निश्चित है कि स्वाधीन और सच्चा सुख घम से ही प्राप्त होता है । ऐसे सच्चे सुख के भागी धर्म को जीवन म ओत प्रोत कर देनेवाले पूण धर्मिष्ठ वीतरागी मुनि ही हो सकते हैं अथवा वीतराग-माग पर चलनवाले धर्मिष्ठ साध-श्रावक वर्ग हो सकते हैं । इसी प्रकार शुद्ध आमतत्त्वरूप उत्तम सिद्धपद और उत्तम अरिहन्त वीतराग-पद की प्राप्ति के लिए एकमात्र साधन धम ही है । घम के द्वारा ही अरिहन्त सिद्ध और साध पदो को उत्तमत्व प्राप्त है । ११ इस प्रकार हम देखत हैं कि धर्म की शक्ति दो प्रकार से प्रकट होती है - एक तो वह आपदग्रस्त व्यक्तियो का रक्षण करता है उन्हें शरण देता है दूसर वह सुख की प्राप्ति कराता है । उत्तराध्ययन म घम की इस द्विविष शक्ति पर सुन्दर प्रकाश डाला गया है । यथा सकडो कष्टो म फैसे हुए क्लेश और रोग से पीडित मरण भय से हताश दुख और शोक से पीडित व्यथित तथा जगत में अनेक प्रकार से याकुल एव निराश्रित जनो के लिए धर्म ही निय शरणभत है । इस प्रकार तुलनात्मक अध्ययन करने पर पता चलता है कि धम के बिना मानव-जीवन की कोई कीमत नही है । किन्तु अवश्य ही उस धर्म का अथ है नैतिकता और सदाचार | प्राणरहित शरीर की तरह उस जीवन का मूल्य नहीं है जिसम धर्म rear नैतिकता नही रहती। अगर जीवन म घम का प्रकाश न हो तो वह अन्वा है और वह अपने लिये तथा दूसरो के लिए भी भारस्वरूप है । मनुष्य मे से पशुता के नि कासन का श्रय धम को ही है। घम मनुष्य की देवी वृत्ति है। यह प्रवृत्ति ही उसम दया दान सन्तोष करुणा अनुकम्पा क्षमा अहिंसा आदि अनक गुणो को उत्पन्न करती है । १ अधुवे असासयमि ससार मिदुक्खपउराए । कि नाम होज्ज त कम्मय जणा ह दोग्गइन गच्छेज्जा ॥ उत्तराध्ययन ८ । १ । २ वही २ । २२ - ३१ । ३ जन बौद्ध तथा गीता के आचार-दशनों का तुलनात्मक अध्ययन भाग १ पृ ४४ ।
SR No.010081
Book TitleBauddh tatha Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendranath Sinh
PublisherVishwavidyalaya Prakashan Varanasi
Publication Year1990
Total Pages165
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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