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________________ पम्मपर में प्रतिपाति सवनीमाला ७७ एक मौका संसाररूपी समुद्र में तैर रही है जिसमें दो छिद्र है। उनमें से एक से गन्धा और दूसरे से साफ पानी मा रहा है। पानी के आते रहन से नाव अब डबने ही वाली है कि नाव का मालिक उन दोनो छिद्रो को बन्द कर देता है जिनसे पानी अपर प्रवेश कर रहा था और फिर दोनों हाथों से उस भरे हुए पानी को उलीचकर निकालने लगता है । धीरे धीर बह नौका पानी से खाली हो जाती ह और पानी की सतह पर आकर अभीष्ट स्थान को प्राप्त करा देती है । इस तरह इस दृष्टान्त म नौका अजीव तत्त्व और नाविक जीव तत्त्व है। गन्दे और साफ पानी पाप और पुण्य के प्रतीक है। जल का नाव में प्रवेश करना मानव एकत्रित होना बन्ध पानी आनेवाले छिद्रो को बन्द करना सवर नाव से पानी को उलीचना निजरा तथा जल के निकल जाने पर नाव का सतह पर मा जाना मोक्ष है। इस प्रकार हम देखते है कि उपर्यत तस्व-याजना में जीव और अजीव ज्ञेयतत्त्व माने गय है जब कि पाप आस्रव और बध ये तीनों त्याज्य तथा पुण्य सवर निजरा और मोक्ष ये चारो उपादेय मान गय है । पाप आस्रव और बन्ध इन तीन से बचना चाहिए तथा पुण्य सवर और निजरा इन तीन का आचरण करना चाहिए । अन्तिम तत्त्व मोक्ष है जिनकी प्राप्ति के लिए इन सबका आचरण किया जाता है । यद्यपि निर्वाण के साधक के लिए पुण्य का आचरण भी लक्ष्य नहीं है फिर भी सापना-माग मे सहायक होन के का ण उसकी आवश्यकता म्वीकार की गयी है । लेकिन शास्त्रकारों ने पुण्य को भी त्या य ही माना है। इस प्रकार जीव और अजीव ये दो जय तथा आस्रव सवर निजरा और मोक्ष उपादेय माने गये है। तुलनात्मक अध्ययन धम्मपद और उत्तराध्ययनसूत्र में प्रतिपादित तस्व-योजना की तुलना करने पर पता चलता है कि दुखो की अनुमति प्रत्येक प्राणी को कट मालम होती है । अतः बे दुखों से छटकारा पाने के लिए नाना प्रकार के प्रयत्न करते देखे जाते हैं । सासारिक जितने भी प्रयत्न है वे सब क्षणिक सुख को देने के कारण वास्तव मे दुखरूप ही है। सच्चे और अविनश्वर सुख को प्राति के लिए चेतन और अचेतन के सयोग और वियोग को आध्यात्मिक प्रक्रिया को जिन नौ तथ्यो (सत्यो ) मे विभाजित किया है उनमें पूण विश्वास उनका पूर्ण ज्ञान और तदनुसार आचरण आवश्यक है। उन नौ तथ्यों के क्रमश नाम है -चेतन (जीव) अचेतन ( अजीब) चेतन और अचेतन को सम्बन्धावस्था (बन्ध ) अहिंसादि शुभ काय ( पुण्य) हिंसादि अशुम काय १ उत्तराध्ययनसूत्र २८१४ ।
SR No.010081
Book TitleBauddh tatha Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendranath Sinh
PublisherVishwavidyalaya Prakashan Varanasi
Publication Year1990
Total Pages165
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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