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________________ पम्मपद में प्रतिपाति नीकांता अपन उपभोग में आई हुई नरक सम्बन्धी यातना का वर्णन करते है। इसी प्रकार समुद्रपालीय नामक इक्कीसवें अध्ययन में चोर की अत्यन्त शोषनीय दशा को देखकर वैराग्य उत्पन्न समुद्रपाल कहने लगता है कि अशुभ कर्मों के माचरण का ऐसा ही कटु परिणाम होता है। साराश यह ह कि जो अशुभ कम है उनका अन्तिम फल अशुभ अर्थात दुखरूप ही होगा। __भारतीय चिन्तको की दृष्टि मे पण्य और पाप-सम्बन्धी समग्र चिन्तन का सार इस कथन में समाविष्ट है कि दूसरो की भलाई करना पण्य और कष्ट देना पाप है जिसके कथन से पापो का विच्छद हो जावे उसे प्रायश्चित्त कहते हैं इसलिए आलोचना आणि प्रायश्चित्त से पापो की विशुचि होती है और पापों की विशुद्धि से इस जीव का बारित्र अतिचार से रहित हो जाता है तथा विषयों से विरक्त रहनवाला जीव नये पापकर्मों का उपाजन नही करता और पूर्व म सचित किए हुओं का नाश कर देता है । इस प्रकार पूर्वसचित कर्मों का नाश और नवीन कर्मों के बन्ध का अभाव हो जाने से उस जीव को जम मरण की परम्परा म नही आना पडता । ५ मानव तस्व पुण्य-पापल्प कम आन को आस्रव कहते हैं। परन्तु आस्रव से मख्यतया पापा स्रव को समझा जाता है। इसीलिए उत्तराध्ययन में पापास्रव के पांच भेदों का सकेत किया गया है यद्यपि उनके नामों का उल्लेख नही है। उपर्यत पांच प्रमख मानव द्वार या बन्ध हेतुओ को पुन अनेक भेद प्रभदो में वर्गीकृत किया गया है जिनका केवल नामोल्लेख करना पर्याप्त है । आत्मा में कम के आने के द्वाररूप आस्रव के मिथ्यात्व अविरति प्रमाद कषाय और योग ये पांच भेद बताये गये हैं जो कि बन्ध के कारण हैं। इन्हें मानव प्रत्यय भी कहते हैं। १ अहो सुभाण कम्माण निजाण पावग इम ॥ उत्तराध्ययनसूत्र २१॥९ २ पायच्छित करणेण पावकम्म विसोहि अणयह निरइयारे यावि भवः । बही २९।१७। ३ विणियटठणयाएण पावकम्माण अकरणयाए अन्भुई। पुष्य बताण य निज्जरणयात नियत्तेइ तो पच्छाचार संसार कन्तार वीइवयइ। वही २९॥३३ । ४ तत्वापसून ब ६ सू १५ । ५ पचासवणवत्तो। उत्तराध्ययनसूत्र ३४१२१॥
SR No.010081
Book TitleBauddh tatha Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendranath Sinh
PublisherVishwavidyalaya Prakashan Varanasi
Publication Year1990
Total Pages165
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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