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________________ ५८ बौड तथा जैनधर्म पुन उत्पन्न कराती ह अर्थात पौनविकी ह नन्दी राग से सहगत है तृष्णा वहाँ-जहाँ सत्त्व उत्पन्न होते हैं वहां-वहाँ अभिनदन ( आसक्ति) करती-कराती है । धम्मपद में कहा गया है कि तृष्णा से शोक उत्पन्न होता ह तृष्णा से भय उत्पन्न होता ह तृष्णा से भक्त को शोक नही फिर भय कहां से? इस प्रकार अपन को अच्छा लगनेवाले स्पादि विषयों में अभिनन्दन करनेवाली तृष्णा तत्र तत्राभिनन्दिनी कहलाती है। ___ अविद्या और कम द ख के हतु होने से समदय सत्य कहे गय है किन्तु गौण रूप से ही सही दुख का तात्कालिक कारण तृष्णा है । धम्मपद में कहा गया है कि अविद्या परम मल है भिक्षओ इस मल को छोडकर निमल बनो। क्योकि तष्णा के अभाव से वे पुनभव उत्पन्न करन म समथ नही होते अतएव तृष्णा ही समदय सत्य कही गई है अविद्या और कर्म नहीं । अविद्या तो अनागत सस्कारों का कारण ह । इसासे को भी समदय कहा गया है । धम्मपद म कहा गया है कि रति ( राग) के कारण शोक उत्पन्न होता है रति के कारण भय उत्पन्न होता है । रति से जो सर्वषा मक्त है उसे शोक नही होता फिर भय कहाँ से हो ? अतएव काम राग आदि होनेवाले कर्म को दुख का कारण कहा गया है। इस तरह से द ख की उत्पत्ति का कारण है तृष्णा प्यास विषयो की प्यास । यदि विषयो की प्यास हमारे हृदय म न हो तो हम इस ससार म न पड और न द ख भोग । तृष्णा सबसे बडा बन्धन ह जो हमें ससार तथा ससार के जीवो से बांधे हुए है। धम्मपद की यह उक्ति कि धीर विद्वान् पुरुष लोहे लकडी तथा रस्सी के बन्धन को दढ नही मानत वस्तुत दढ बन्धन है सारवान् पदार्थों में रक्त होना या मणि कुण्डल पुत्र तथा स्त्री म इछा का होना बिल्कुल ठीक है । मकडी जिस प्रकार अपने ही जाल बुनती ह और अपने ही उसीम बधी रहती है ससार के जीवों १ दीपनिकाय २१३ ८ प २३ विसुद्धिमग १६३१ १ ३४८ मज्झिम निकाय ११४८ प ६५॥ २ तव्हाय जायते सोको तोहाय जायते भय । तण्हाय विष्पमुत्तस्से नत्थि सोको कुतो भय । धम्मपद गाया-सख्या २१६ । ३ अपिज्जा परम मल । एत मल पहत्वान निम्मला होथ भिक्खयो । वही २४३॥ ४ रतिया जायते सोको रतिया जायते भय । रतिया विप्पमन्तस्स नत्यि सोको कुतो भय ।। वही २१४॥ ५ नत बल्ह बन्धनमाह धीरा यदायस दारुज बम्बजग्छ । सास्तस्ता मणिकुण्डलेसु पत्तेसु दारेसु च या अपेक्खा ॥ वही ३४५॥
SR No.010081
Book TitleBauddh tatha Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendranath Sinh
PublisherVishwavidyalaya Prakashan Varanasi
Publication Year1990
Total Pages165
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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