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________________ सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका ] [ ५२५ बहुरि देशावधि भी सम्यग्दर्शनादि गुरण होत सतै हो है, तातै गुणप्रत्यय अवधि तो तीन प्रकार ही है । अर भवप्रत्यय अवधि एक देशावधि ही है । देसावहिस्स य अवरं, गरतिरिये होदि संजदमि वरं । परमोही सव्वोही, चरमसरीरस्स विरदस्स || ३७४॥ टीका देशावधि का जघन्य भेद सयमी वा असयमी मनुष्य, तियंच विषै ही हो है; देव, नारकी विषे न हो है । बहुरि देशावधि का उत्कृष्ट भेद सयमी, महाव्रती, मनुष्य विषै ही हो है; जाते और तीन गति विषे महाव्रत संभव नाहीं । देशावधेश्च वरं, नरतिरश्चोः भवति संयते वरम् । परमावधिः सर्वावधिः, चरमशरीरस्य विरतस्य || ३७४ || नाही । बहुरि परमावधि र सर्वावधि जघन्य वा उत्कृष्ट (वा) चरम शरीरी महाव्रतो मनुष्य विषै संभव है । ―――― चरम कहिए संसार का अत विषै भया, तिस ही भवतं मोक्ष होने का कारण, असा वज्रवृषभनाराच शरीर जिसका होइ, सो चरमशरीरी कहिए । टीका पडिवादी सोही, पडिवादी हवंति सेसा ओ । मिच्छत्तं अविरमरणं, ण य पडिवज्जंति चरिमदुगे || ३७५ || प्रतिपाती देशावधिः, अप्रतिपातिनौ भवतः शेषौ अहो । मिथ्यात्वमविरमण, न च प्रतिपद्यन्ते चरमद्विके ॥ ३७५ ॥ देशावधि ही प्रतिपाती है; शेष परमावधि, सर्वावधि प्रतिपाती - प्रतिपात कहिए सम्यक् चारित्र सौ भ्रष्ट होइ, मिथ्यात्व असयम की प्राप्त होना, तीहि सयुक्त जो होइ; सो प्रतिपाती कहिए । जो प्रतिपाती न होइ, सो प्रतिपाती कहिए । देशावधिवाला तो कदाचित् सम्यक्त्व चारित्र सौ भ्रष्ट होइ, मिथ्यात्व असयम को प्राप्त हो है । र चरमद्विक कहिए अंत का परमावधि - सर्वावधि दोय ज्ञान विषै वर्तमान जीव, तो निश्चय त
SR No.010074
Book TitleSamyag Gyan Charitra 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1989
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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