SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 461
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५२६ ] [ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा ३७६-३७७ मिथ्यात्व अर अविरति को प्राप्त न हो है। जाते देशावधि तौ प्रतिपाती भी है; अप्रतिपाती भी है । परमावधि, सर्वावधि अप्रतिपाती ही हैं। दव्वं खेत्तं कालं, भावं पडि रूवि जाणदे प्रोही। अवरादुक्कस्सो त्ति य, वियप्परहिदो दु सव्वोही ॥३७६॥ द्रव्यं क्षेत्रं कालं, भावं प्रति रूपि जानीते अवधिः। अवरादुत्कृष्ट इति च, विकल्परहितस्तु सर्वावधिः ॥३७६॥ टीका - अवधिज्ञान जघन्य भेद तै लगाइ उत्कृष्ट भेद पर्यंत असख्यात लोक प्रमाण भेद धरै है; सो सर्व द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव प्रति मर्यादा लीए रूपी जो पुद्गल अर पुद्गल सबंध को धरै संसारी जीव, तिनिको प्रत्यक्ष जान है । बहुरि सर्वावधिज्ञान है, सो जघन्य, मध्यम, उत्कृष्ट भेद रहित, हानि - वृद्धि रहित, अवस्थित सर्वोत्कृष्टता को प्राप्त है, जाते अवधिज्ञानावरण का उत्कृष्ट क्षयोपशम तहां ही संभव है । तातै देशावधि, परमावधि के जघन्य, मध्यम, उत्कृष्ट भेद संभव हैं । णोकम्मुरालसंचं, मज्झिमजोगोज्जियं सविस्सचयं । लोयविभत्तं जाणदि, अवरोही दव्वदो रिणयमा ॥३७७॥ नोकौं दारिकसंचयं, मध्यमयोगाजितं सविनसोपचयम् । लोकविभक्तं जानाति, अवरावधिः द्रव्यतो नियमात् ॥३७७॥ टीका - मध्यम योग का परिणमन ते निपज्या असा नोकर्मरूप औदारिक शरीर का सचय कहिए द्वयर्ध गुणहानि करि औदारिक का समयप्रबद्ध को गुणिए, तिहि प्रमाण औदारिक का सत्तारूप द्रव्य, बहुरि सो अपने योग्य विस्रसोपचय के परमाणूनि करि सयुक्त, ताकी लोकप्रमाण असंख्यात का भाग दीएं, जो एक भाग मात्र द्रव्य होइ, तावन्मात्र ही द्रव्य को जघन्य अवधिज्ञान जान है। यात अल्प स्कंध को न जान है; जघन्य योगनि ते जो निपजै है सचय, सो यात सूक्ष्म हो है; तातै तिस को जानने की शक्ति नाही । बहुरि उत्कृष्ट योगनि ते जो विपजै है संचय, सो यातै स्थूल है, ताकौ जान ही है जातै जो सूक्ष्म को जाने, ताकै उसतै स्थूल को जानने में किछू विरुद्ध (विरोध)नाही । तातै यहां मध्यम योगनि करि निपज्या असा औदारिक शरीर का संचय कह्या । बहुरि विस्रसोपचय रहित सूक्ष्म हो है, तातै वाकै जानने की शक्ति
SR No.010074
Book TitleSamyag Gyan Charitra 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1989
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy