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________________ ५२४ ] [ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा ३७३ मति धरौ वह अवधिज्ञान साथि ही रहै है । अर उस क्षेत्र तै जीव और कोई भरत, ऐरावत, विदेहादि क्षेत्रनि विषै गमन करै, तो वह ज्ञान अपने उपजने का क्षेत्र ही विपै विनष्ट होइ, सो क्षेत्राननुगामी कहिए । बहुरि जो अवधिज्ञान जिस पर्याय विषै उपज्या होइ, तिस पर्याय विषै तो जीव और क्षेत्र विषै तौ गमन करौ वा मति करौ वह अवधिज्ञान साथि रहे अर उस पर्याय ते अन्य कोई देव मनुष्य आदि पर्याय धरै तौ अपने उपजने का पर्याय विषे विनष्ट होइ, सो भवाननुगामी कहिये । बहुरि जो अवधिज्ञान और क्षेत्र विषै वा और पर्याय विषै जीव कौं प्राप्त होते साथि न रहै; अपने उपजने का क्षेत्र वा पर्याय विषे ही विनष्ट होइ; सो उभयाननुगामी कहिए । बहुरि जो अवधिज्ञान सूर्यमंडल की ज्यों घटै बधै नाही, एक प्रकार ही रहे; सो अवस्थित कहिए । बहुरि जो अवधिज्ञान कदाचित् बधै, कदाचित् घटै, कदाचित् श्रवस्थित रहै; सो अनवस्थित कहिये । बहुरि जो अवधिज्ञान शुक्ल पक्ष के चंद्रमंडल की ज्यौं बघता बघता अपने उत्कृष्ट पर्यंत वधै; सो वर्धमान कहिए । वहुरि जो अवधिज्ञान कृष्ण पक्ष के चंद्रमंडल की ज्यों घटता घटता अपने नाश पर्यंत घट; सो हीयमान कहिए । जैसे गुरणप्रत्यय अवधिज्ञान के छह भेद कहे । बहुरि तैसे ही सामान्यपर्ने अवधिज्ञान तीन प्रकार है - देशावधि, परमावधि, सर्वावधि ए तीन भेद है । तहां गुणप्रत्यय देशावधि ही छह प्रकार जानना । भवपच्चइगो ओही, देसोही होदि परमसव्वोही । गुगपच्चइगो रियमा, देसोही वि य गुणे होदि ॥ ३७३ ॥ भवप्रत्ययकोवधिः, देशावधिः भवति परमसर्वावधिः । गुणप्रत्ययको नियमात्, देशावधिरपि च गुणे भवति ॥ ३७३ ॥ टीका तीर्थंकर इनके परमावधि सर्वावधि होइ नाही । भवप्रत्यय अवधि तौ देशावधि ही है, जातै देव, नारकी, गृहस्थ, बहुरि परमावधि र सर्वावधि निश्चय सौं गुणप्रत्यय ही है; जातै संयमरूप विशेष गुण विना न होइ ।
SR No.010074
Book TitleSamyag Gyan Charitra 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1989
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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