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________________ ३६ ] [ गोम्मटसार कर्मकाण्ड सम्बन्धी प्रकरण स्वरूप कहि गुणस्थाननि विषे सामान्य सत्त्व प्रकृतिनि का वर्णन करि विशेष वर्णन विषे मिथ्यादृष्ट्यादि गुणस्थाननि विषे जेते स्थान वा भंग पाइए तिनको कहि जुदा-जुदा कथन विषै तिनका विधान वा प्रकृति घटने, वधने, बदलने के विशेष का वद्धायु-अवद्धायु अपेक्षा वर्णन है । तहां प्रसंग पाइ मिथ्यादृष्टि विपे तीर्थंकर सत्तावाले के नरकायु ही का सत्त्व होइ ताका, वा एकेद्रियादिक के उद्वेलना का अर सासादन विषै आहार सत्ता के विशेष का, मिश्र विषे अनंतानुबंधीरहित सत्त्वस्थान जैसे संभव ताका, असयत विपै मनुष्यायु-तीर्थंकर सहित एक सौ अडतीस प्रकृति की सत्तावाले के दोय वा तीन ही कल्याणक होइ ताका, अपूर्वकरणादि विपैं उपशमक - क्षपक श्रेणी अपेक्षा का इत्यादि अनेक वर्णन है । बहुरि आचार्यनि के मतकरि जो विशेष है ताकों कहि तिस पेक्षा कथन है । वहरि चौथा त्रिचूलिका नामा अधिकार है । तहां प्रथम नव प्रश्नकरि चूलिका का व्याख्यान है । तिसविषै पहिले तीन प्रश्नकरि तिनका उत्तर विपें जिन प्रकृतिनि की उदयव्युच्छित्ति ते पहिले बंधव्युच्छित्ति भई तिनका, अर जिनकी उदयव्युच्छित्ति ते पीछे वंधव्युच्छित्ति भई तिनका, अर जिनकी उदयव्युच्छित्ति - बंधव्युच्छित्ति युगपत् भई तिनका वर्णन है । वहुरि दूसरा - तीन प्रश्नकरि तिनका उत्तर विषे जिनका अपना उदय होते ही बंध होइ तिनका, अर जिनका अन्य प्रकृतिनि का उदय होते ही बंध होइ तिनका घर जिनका अपना वा अन्य प्रकृतिनि का उदय होते वंध होय तिन प्रकृतिनि का वर्णन है । बहुरि तीसरा - तीन प्रश्नकरि तिनका उत्तर विषै जिनका निरन्तर वंध होइ तिनका, अर जिनका सांतर बंघ होइ तिनका, अर जिनका सांतर वा निरंतर बंध होइ तिनका कथन है । इहां तीर्थंकरादि प्रकृति निरंतर वंधी जैसें है ताका, र सप्रतिपक्ष नि प्रतिपक्ष अवस्था विषे सांतर - निरंतर वंध जैसे संभव है ताका वर्णन है । बहरि दूसरी पंचभागहारचूलिका का व्याख्यान विषै मंगलाचरणकरि उद्वेलन, विध्यात, अवःप्रवृत्त, गुणसक्रम, सर्वसंक्रम - इन पंच भागहारनि के नाम का अर स्वम्प का, घर ते भागहार जिनि-जिनि प्रकृतिनि विपं वा गुरगस्थाननि विपै संभवे ताका वर्णन है । श्रर सर्वसंक्रमभागहार, गुणसंक्रमभागहार, उत्कर्षण वा अपकर्पणभागहार, श्रय प्रवृत्तभागहार, योगनि विपे गुणकार, स्थिति विषै नानागुणहानि, प्रत्य पत्य का वर्गमूल स्थिति विषे गुणहानि प्रायाम, स्थिति विपं श्रन्योन्याभ्यस्त रानिपत्य कर्म की उत्कृष्ट स्थिति वित्र्यातसंक्रमभागहार, उद्वेलनभागहार,
SR No.010074
Book TitleSamyag Gyan Charitra 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1989
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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