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________________ १३२ ] [ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा ४५ तातै इन अंक संयुक्त कोठानि के भेद ग्रहै, लोभ अनुमोदित वचन समारंभ असा आलाप कहिए। __वहुरि उद्दिष्ट पूछे तौ, तिस आलाप विष कहे भेद संयुक्त कोठेनि के अंक मिलाए, जो प्रमाण होड, तेथवां आलाप कहना । जैसे पूछया कि मान कृत काय आरंभ केथवा आलाप है ? तहां इस पालाप विष कहे भेद संयुक्त कोठेनि के दोय, विदी, चौवीस, वहत्तरि ए अंक जोडि, अठ्याणवैवां पालाप है; जैसा कहना । याही प्रकार प्रथम प्रस्तार अपेक्षा अन्य नप्ट-समुद्दिष्ट वा दूसरा प्रस्तार अपेक्षा ते नष्टममुद्दिष्ट साधन करने । असे ही शील भेदादि विषै यथासभव साधन करना । या प्रकार प्रमत्तगुणस्थान विष प्रमाद भग कहने का प्रसग पाइ सख्यादि पांच प्रकारनि का वर्णन करि प्रमत्तगुणस्थान का वर्णन समाप्त किया । आग अप्रमत्त गुणस्थान के स्वरूप को प्ररूप है - संजलणगोकसायाणुदयो मंदो जदा तदा होदि । अपमत्तगुणो तेण य, अपमत्तो संजदो होदि ॥४५॥ संज्वलननोकषायारणामुदयो मंदो यदा तदा भवति । अप्रमत्तगुणस्तेन च, अप्रमत्तः संयतो भवति ॥४५॥ टीका - यदा कहिए जिस काल विपै संज्वलन क्रोध, मान, माया, लोभ च्यारि कपाय अर हास्यादि नव नोकपाय इनका यथासंभव उदय कहिए फल देनेरूप परिणमन, सो मंद होड, प्रमाद उपजावने की शक्ति करि रहित होइ, तदा कहिए तीहि काल विप अतर्मुहुर्त पर्यत जीव के अप्रमत्तगुण कहिए अप्रमत्तगुणस्थान हो है, तीहि कारणकरि तिम अप्रमत्त गुणस्थान संयुक्त संयत कहिए सकलसंयमी, सो अप्रमननंयत है । चकार करि प्रागै कहिए हैं जे गुण, तिनकरि सयुक्त है। प्राग अप्रमत्त संयत के दोय भेद है; स्वस्थान अप्रमत्त, सातिशय अप्रमत्त । नहा जो थेणी चढने की सन्मुख नाही भया, सो स्वस्थान अप्रमत्त कहिए । वहुरि जो अंगी बढ़ने का नन्मुख भया, सो सातिशय अप्रमत्त कहिए । तहां स्वस्यन अप्रमत्त मयत के स्वरूप की निरूप हैं -
SR No.010074
Book TitleSamyag Gyan Charitra 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1989
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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