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________________ सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका | णट्ठासेसपमादो, वयगुणसीलोलिमंडिओ गाणी | अणुवसओ अखवओ, कारणणिलीणो हु प्रपमत्तो ॥ ४६ ॥ नष्टाशेषप्रमादो, व्रतगुणशीलावलिमंडितो ज्ञानी । अनुपशमकः क्षपको, ध्याननिलीनो हि अप्रमतः ॥ ४६ ॥ टोका जो जीव नष्ट भए है समस्त प्रमाद जाके जैसा होइ, बहुरि व्रत, गुण, शील इनकी श्रावली पंक्ति, तिनकरि मडित होइ - प्रभूषित होइ, बहुरि सम्यज्ञान उपयोग करि संयुक्त होइ, बहुरि धर्मध्यान विषे लीन है मन जाका औसा होइ, औसा अप्रमत्त संयमी यावत् उपशम श्रेणी वा क्षपक श्रेणी के सन्मुख चढने कौन प्रवर्तै, तावत् सो जीव प्रकट स्वस्थान अप्रमत्त है; औसा कहिए । इहा ज्ञानी ऐसा विशेषण कह्या है, सो जैसे सम्यग्दर्शन- सम्यक्चारित्र मोक्ष के कारण है, तैसे सम्यक् - ज्ञान के भी मोक्ष का कारणपना को सूचै है ! भावार्थ - कोऊ जानेगा कि चतुर्थ गुणस्थान विषै सम्यक्त्व का वर्णन कीया, पीछे चारित्र का कीया, सो ए दोय ही मोक्षमार्ग है; ताते ज्ञानी औसा विशेषण कहि सम्यग्ज्ञान भी इनि की साथि ही मोक्ष का कारण है जैसा अभिप्राय दिखाया है । आगे सातिशय अप्रमत्तसयत के स्वरूप को कहै है - इगवीसमोहखवणुवसमणणिमित्ताणि तिकररगाणि तहिं । पढमं अधापवत्तं करणं तु करेदि अपसत्तो ॥ ४७ ॥ एकविंशतिमोहक्षपरगोपशमननिमित्तानि त्रिकरणानि तेषु । प्रथममधः प्रवृत्त करणं तु करोति श्रप्रमत्तः ॥ ४७ ॥ 1 [ १३३ ? टीका - इहां विशेष कथन है; सो कैसे है समय प्रति अनंतगुणी विशुद्धता करि वर्धमान होइ, सो कहिए है - जो जीव समयमंदकपाय होने का नाम विशु द्धता है, सो प्रथन समय की विशुद्धता ते दूसरे समय की विशुद्धता श्रनतगुणी, ताते तीसरे समय की अनन्त गुणी, असे समय-समय विशुद्धता जाऊँ वधती होय, असा जी १ पट्डागम - चवला पुस्तक १, पृष्ठ १५०, गाथा ११५
SR No.010074
Book TitleSamyag Gyan Charitra 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1989
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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