SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 71
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अठारह पाप सामायिक के पाठ मे जहाँ 'सावज्ज जोग पच्चक्खामि' अश आता है, वहाँ 'सावज्ज' का अर्थ सावध है, अवद्य अर्थात् पाप-उससे सहित । भाव यह है कि सामायिक मे उन सब कार्यो का त्याग करना होता है, जिनके करने से पाप-कर्म का बन्ध होता है, प्रात्मा मे पाप का स्रोत आता है। शास्त्रकारो ने पाप की व्याख्या करते हुए, अठारह प्रकार के सासारिक कार्यो मे पाप बताया है। उन अठारहो मे से कोई भी कार्य करने पर पाप-कर्म का बन्ध होकर आत्मा भारी हो जाती है। और, जो आत्मा कर्मो के बोझ से भारी हो जाती है, वह कदापि समभाव को, आध्यात्मिक अभ्युदय को प्राप्त नही कर सकती। उसका पतन होना अनिवार्य है। सक्षेप मे अठारह पापो की व्याख्या इस प्रकार है (१) प्राणातिपात-हिंसा करना । जीव यद्यपि नित्य है, अत वह न कभी मरता है और न मरेगा, अतएव जीव-हिंसा का अर्थ यह है कि जीव ने अपने लिए जो मन, वचन, शरीर एव इन्द्रिय आदि प्राणरूप सामग्री एकत्रित की है, उसको नष्ट करना, क्षति पहुँचाना, हिंसा है। प्राचार्य उमास्वाति ने कहा है____ 'प्रमत्तयोगात् प्राणव्यपरोपण हिंसा' –तत्त्वार्थ-सूत्र, ७८ - अर्थात् क्रोध, मान, माया, लोभ आदि किसी भी प्रमत्तयोग से, किसी भी प्राणी के प्राणो को, किसी भी प्रकार का प्राघात पहुंचाना 'हिंसा' है।
SR No.010073
Book TitleSamayik Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1969
Total Pages343
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy