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________________ श्रणिपात -सूत्र २४९ भावार्थ श्री अरिहन्त भगवान् को नमस्कार हो । [ अरिहन्त भगवान् कैसे है ? ] धर्म की आदि करने वाले है, धर्म तीर्थ की स्थापना करने वाले हैं, अपने-आप प्रबुद्ध हुए हैं। पुरुषो मे श्रेष्ठ है, पुरुषो मे सिंह हैं, पुरुषो मे पुण्डरीक कमल हैं, पुरुषो मे श्रेष्ठ गन्धहस्ती है । लोक मे उत्तम हैं, लोक के नाथ हैं, लोक के हितकर्ता है, लोक मे दीपक है, लोक मे उद्द्योत करने वाले है | अभय देने वाले हैं, ज्ञानरूप नेत्र के देने वाले है, धर्म मार्ग के देने वाले है, शरण के देने वाले है, सयमजीवन के देने वाले है, बोधि - सम्यक्त्व के देने वाले है, धर्म के दाता हैं, धर्म के उपदेशक है, धर्म के नेता है, धर्म के सारथी - सचालक हैं । चार गति के अन्त करने वाले श्रेष्ठ धर्म के चक्रवर्ती है, अप्रतिहत एव श्रेष्ठ ज्ञानदर्शन के धारण करने वाले हैं, ज्ञानावरण श्रादि घा'त कर्म से अथवा प्रमाद से रहित है । स्वय रागद्वेष के जीतने वाले है, दूसरो को जिताने वाले हैं, स्वयं संसार-सागर से तर गए है, दूसरो को तारने वाले है, स्वय बोध पा चुके है, दूसरो को बोध देने वाले है, स्वय कर्म से मुक्त है, दूसरो को मुक्त कराने वाले है । सर्वज्ञ हैं, सर्वदर्शी हैं। तथा शिव कल्याणरूप अचल - स्थिर, अरुज - रोगरहित, अनन्त - अन्तरहित, अक्षय-क्षयरहित, अव्याबाध - बाधा - पीडा से रहित, पुनरावृत्ति -- पुनरागमन से रहित अर्थात् जन्म-मरण से रहित सिद्धि-गति नामक स्थान को प्राप्त कर चुके है, भय को जीतने वाले हैं, रागद्वेप को जीतने वाले हैंउन जिन भगवानो को मेरा नमस्कार हो । विवेचन जैन धर्म की साधना अध्यात्म-साधना है । जीवन के किसी भी क्षेत्र मे चलिए, किसी भी क्षेत्र मे काम करिए, जैन-धर्म आध्यात्मिक जीवन की महत्ता को भुला नहीं सकता । प्रत्येक प्रवृत्ति के पीछे जीवन मे पवित्रता का, उच्चता का और अखिल
SR No.010073
Book TitleSamayik Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1969
Total Pages343
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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