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________________ १५८ सामायिक सूत्र २-संवेग-काम, क्रोध, मान, माया आदि सासारिक बन्धनो का भय ही सवेग है। सम्यग्दृष्टि प्राय. भय से मुक्त रहता है। वह हमेशा निर्भय एव निर्द्वन्द्व रहता है और उत्कृष्ट दशा मे पहुँच कर तो जीवन-मरण, हानि-लाभ, स्तुति-निन्दा आदि के भय से भी मुक्त हो जाता है। परन्तु, यदि उसे कोई भय अर्थात् अरुचि है, तो वह सांसारिक बन्धनो से है । वस्तुत यह है भी ठीक । आत्मा के पतन के लिए सांसारिक बन्धनो से बढकर और कोई चीज नही है। जो इनसे डरता रहेगा, वही अपने को बन्धनो से स्वतंत्र कर सकेगा। ३-निर्वेद-विषय भोगो मे आसक्ति का कम हो जाना 'निवेद' है । जो मनुष्य भोग-वासना का गुलाम है, विषय भोग की पूर्ति के लिए भयकर-से-भयंकर अत्याचार करने पर भी उतारू हो जाता है, वह सम्यग्दृष्टि किस तरह बन सकता है ? आसक्ति और सम्यगदर्शन का तो दिन रात का सा वैर है। जिस साधक के हृदय में ससार के प्रति गाढ आसक्ति नहीं है, जो विषय-भोगो से कुछ उदासीनता रखता है, वही सम्यग्-दर्शन की ज्योति से प्रकाशमान होता है। ४-अनुकम्पा-दुःखित प्राणियो के दुखो को दूर करने की बलवती इच्छा 'अनुकम्पा' है। सम्यग्दृष्टि साधक, सकट मे पडे हुए जीवो को देखकर कपित हो उठता है, उन्हे बचाने के लिए अपने समस्त सामर्थ्य को लेकर उठ खडा होता है। वह अपने दुख से इतना दुःखित नही होता, जितना कि दूसरो के दुख से दुखित होता है। जो लोग यह कहते है कि दुनियाँ मरे या जिए, हमे क्या लेना देना है ? मरते को बचाने मे पाप है, धर्म नहीं | उन्हे सम्यक्त्व के उक्त अनुकम्पा-लक्षण पर ही लक्ष्य देना चाहिए ।, अनुकम्पा ही तो भव्यत्व का परिपाक है । कहा जाता है-अभव्य बाह्यत जीव-रक्षा कर सकता है, परन्तु अन्तर् मे अनुकम्पा कभी नही कर सकता। - ५-प्रास्तिक्य-आत्मा आदि परोक्ष किन्तु आगमप्रमाण सिद्ध पदार्थों का स्वीकार ही आस्तिक्य है। साधक आखिरकार साधक ही है, सिद्ध नही । अत वह कितना ही प्रखर-बुद्धि क्यो न हो; परन्तु आत्मा आदि अरूपी पदार्थों को वह कभी भी प्रत्यक्षत इन्द्रिय-ग्राह्य नही कर सकता। भगवद्वाणी पर विश्वास रक्खे विना साधना की है। है ? मरते को ज पर ही लक्ष्य देहा अभ
SR No.010073
Book TitleSamayik Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1969
Total Pages343
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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