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________________ सम्यक्त्व सून १५७ सकता। अरिहन्त भगवान् का अन्तराय कर्म क्षय हो जाता है, फलत उनको दान, लाभ यादि मे किसी भी प्रकार का विघ्न नही होता। गुरु : निर्गन्य जैन-धर्म मे गुरु का महत्त्व त्याग की कसौटी पर ही परखा जाता है । जो प्रात्मा अहिंसा आदि पाच महाव्रतो का पालन करता हो, छोटे बड़े सब जीवो पर समभाव रखता हो, भिक्षा-वृत्ति के द्वारा भोजन-यात्रा पूर्ण करता हो, पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन करता होरात्रि भोजन न करता हो, किसी भी प्रकार का परिग्रह-धन न रखता हो, पैदल ही विहार करता हो, वही, सच्चे गुरु-पद का अधिकारी है। धर्म : जीवदया आदि सच्चा धर्म वही है, जिसके द्वारा अन्तःकरण शुद्ध हो, वासनाओ का क्षय हो, प्रात्म-गुणो का विकास हो, आत्मा पर से कर्मों का प्रावरण नष्ट हो । अन्त मे पात्मा अजर, अमर, पद पाकर सदाकाल के लिए दुखो से मुक्ति प्राप्त कर ले। ऐसा धर्म अहिंसा, सत्य, अपरिग्रहसन्तोष तथा दान, तप और भावना आदि है। सम्यक्त्व के लक्षण सम्यक्त्व अन्तरग की चीज है, अत उसका ठीक-ठीक पता लगाना साधारण लोगो के लिए जरा मुश्किल है। इस सम्बन्ध मे निश्चित रूप से केवलज्ञानी ही कुछ कह सकते है । तथापि, आगम मे सम्यक्त्वधारी व्यक्ति की विशेषता बतलाते हुए पाँच चिह्न ऐसे बतलाए हैं, जिनसे व्यवहार क्षेत्र मे भी सम्यग्दर्शन की पहचान हो सकती है । १-प्रशम-असत्य के पक्षपात से होने वाले कदाग्रह श्रादि दोषो का उपशमन होना 'प्रशम' है । सम्यग्-दृष्टि आत्मा कभी भी दुराग्रही नही होता | वह असत्य को त्यागने और सत्य को स्वीकार करने के लिए हमेशा तैयार रहता है। एक प्रकार से उसका समस्त जीवन सत्यमय और सत्य के लिए ही होता है।
SR No.010073
Book TitleSamayik Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1969
Total Pages343
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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