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________________ सामायिक-प्रवचन प्रथम दॉये कधे पर मत्र की स्थापना करे, अर्थात् मानस कल्पना से मत्र की आकृति कधे पर रख लिखे, फिर बॉये कधे पर, फिर ललाट (दोनो भौहो के बीच) पर, और फिर हृदय पर । इस प्रकार चार स्थान पर पुन. पुन अपने इष्ट मत्र की प्राकृति स्थापित करते रहे । इसमे चार स्थानो पर मत्राकृति अकित की जाती है, अत यह, 'चतुर्मुखजप' कहलाता है। यह जप की श्रेष्ठ विधि है । एक प्रकार से यह ध्यान व जप की मिश्रित अवस्था है, अत. इसके द्वारा मन एकाग्रता की दिशा मे अच्छी तरह साधा जा सकता है। जप किसका ? 2.5 जप करने वाला साधक अधिकतर यह जानना चाहता है कि जप साधना मे किस मत्र का जप किया जाए? __जप मे यो तो किसी भी श्रेष्ठ मत्र का जप किया जा सकता है, किन्तु उसके लिए यह ध्यान में रखना चाहिए कि जप-मत्र के अक्षर जितने कम हो और उनका उच्चारण करते समय जितना अधिक दीर्घ स्वास लिया जाए, वही मत्र चुनना चाहिए। उदाहरण के रूप मे 'ॐ' यह एकाक्षर मत्र है, इसके उच्चारण के साथ प्राणायाम की क्रिया भी स्वतः होती रहती है, चाहे जितना दीर्घस्वास लिया जा सकता है। 'ॐ' के स्थान पर 'अह' का भी जप किया जा सकता है, अथवा 'ॐ अर्ह' इस मत्र का भी। मत्र का चुनाव करते समय, ध्येय-स्वरूप का ध्यान रखा जाए तो और भी श्रेष्ठ है, जैसे 'ॐ' के उच्चारण के साथ ही 'ध्येय' रूप अरिहत, सिद्ध आदि पाँच पदो के स्वरूप का चित्र मानस-चक्षु के सामने चित्रित हो जाना चाहिए । जैन परम्परा मे 'ॐ' नवकार मत्र का बीज मत्र माना गया है। इसमे 'अ' से अरिहन, 'अ' से सिद्धअशरीरी , 'या' से प्राचार्य, 'उ' से उपाध्याय तथा 'म्' से मुनि (साधु) इनकी ध्वनि ग्रहण की गई है। १ अरिहता असरीरा, आयरिय-उवज्झाय-मुगियो। पचवखर निष्फन्नो ॐ कारो पच परमिट्ठी ॥ -~बृहद् द्रव्य सग्रह, टीका पृ० १८२
SR No.010073
Book TitleSamayik Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1969
Total Pages343
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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