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________________ [ ६६ ] परिणाम जिसके हैं, वह मिथ्यादृष्टि कहलाता है। वह मिथ्यादृष्टि नर-नारकादि विभाव-पर्यायोंमें लीन रहता है । उस मिथ्यात्व परिणामसे शुद्धात्माके अनुभवसे पराङमुख अनेक तरहके कर्मोको बांधता है, जिनसे कि द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव, भावरूपी पांच प्रकारके संसारमें भटकता है । ऐसा कोई शरोर नहीं, जो इसने न धारण किया हो, ऐसा कोई क्षेत्र नहीं है, कि जहां न उपजा हो, और मरण किया हो, ऐसा कोई काल नहीं है, कि जिसमें इसने जन्म-मरण न किये हों, ऐसा कोई भव नहीं, जो इसने पाया न हो, और ऐसे अशुद्ध भाव नहीं हैं, जो इसके न हुए हों। इस तरह अनन्त परावर्तन इसने किये हैं। - ऐसा ही कथन मोक्षपाहुड़में निश्चय मिथ्यादृष्टिके लक्षण में श्रीकुन्दकुन्दाचार्यने कहा है-"जो पुण" इत्यादि । इसका अर्थ यह है, कि जो अज्ञानी जीव द्रव्यकर्म, भावकर्म, नोकर्मरूप परद्रव्यमें लीन हो रहे हैं, वे साधुके व्रत धारण करने पर भी मिथ्यादृष्टि ही हैं, सम्यग्दृष्टि नहीं और मिथ्यात्वकर परिणमते दुःख देनेवाले आठ कर्मोको बांधते हैं । फिर भी आचार्यने ही मोक्षपाहुड़में कहा है- "जे पज्जयेसु" इत्यादि । उसका अर्थ यह है, कि जो नर-नारकादि पर्यायोंमें मग्न हो रहे हैं, वे जीव परपर्यायमें रत मिथ्यादृष्टि हैं, ऐसा भगवानने कहा है, और जो उपयोग लक्षणरूप निजभाव में तिष्ठ रहे हैं, वे स्वसमयरूप सम्यग्दृष्टि हैं, ऐसा जानो । सारांश यह है, कि जो परपर्यायमें रत हैं, वे तो परसमय (मिथ्यादृष्टि) हैं, और जो आत्म-स्वभावमें लगे हुए हैं, वे स्वसमय (सम्यग्दृष्टि) हैं, मिथ्यादृष्टि नहीं हैं । यहांपर आत्मज्ञानरूपी वीतराग सम्यक्त्वसे पराङ मुख जो मिथ्यात्व है, वह त्यागने योग्य है ।।७७॥ .. अथ मिथ्यात्वोपार्जितकर्मशक्ति कथयति · कम्मई दिढ-घण-चिक्कणई गरुवई वज्ज-समाइ । ..णाण-वियक्खणु जीवडउ उत्पहि पाड हिं ताई ॥७॥ कर्माणि दृढघनचिक्कणानि गुरुकाणि वज्रसमानि । ज्ञानविचक्षणं जीवं उत्पथे पातयन्ति तानि ।।७।। . आगे मिथ्यात्वकर अनेक प्रकार उपार्जन किये कर्मोसे यह जीव संसार-वनमें भ्रमता है, उस कर्मशक्तिको कहते हैं-(तानि कर्माणि) वे ज्ञानावरणादि कर्म (ज्ञानविचक्षणं) ज्ञानादि गुणसे चतुर (जीवं) इस जीवको (उत्पथे) खोटे मार्गमें (पातयंति)
SR No.010072
Book TitleParmatma Prakash evam Bruhad Swayambhu Stotra
Original Sutra AuthorYogindudev, Samantbhadracharya
AuthorVidyakumar Sethi, Yatindrakumar Jain
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages525
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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