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________________ [ ४६ ] - भावार्थ-इस आत्माके शुद्धनिश्चयनयकर ज्ञानावरणादि आठ द्रव्यकर्म नहीं है, क्षुधादि दोषोंके कारणभूत कर्मोके नाश हो जानेसे क्षुधा तृषादि अठारह दोष कार्यरूप नहीं हैं, और अपि शब्दसे सत्ता चैतन्य ज्ञान आनन्दादि शुद्ध प्राण होनेपर भी इन्द्रियादि दश अशुद्ध रूप प्राण नहीं हैं, इसलिये संसारी-जीवोंके भी शुद्धनिश्चयनयसे शक्तिरूपसे शुद्धपना है, लेकिन रागादि विभाव-भावोंकी शून्यता ही है । तथा सिद्धजीवोंके तो सब तरहसे प्रगटरूप रागादिसे रहितपना है, इसलिये विभावोंसे रहितपनेकी अपेक्षा शून्यभाव है, इसी अपेक्षासे आत्माको शून्य भी कहते हैं । ज्ञानादिक शुद्ध भावकी अपेक्षा सदा पूर्ण ही है, और जिस तरह बौद्धमती सर्वथा शून्य मानते हैं, वैसा अनन्तज्ञानादि गुणोंसे कभी नहीं हो सकता। ऐसा कथन श्रीपंचास्तिकायमें भी किया है"जेसिं जीवसहावो" इत्यादि । इसका अभिप्राय यह है, कि जिन सिद्धोंके जीवका स्वभाव निश्चल है, जिस स्वभावका सर्वथा अभाव नहीं है, वे सिद्धभगवान् देहसे रहित · हैं, और वचनके विषयसे रहित हैं, अर्थात् जिनका स्वभाव वचनोंसे नहीं कह सकते । यहां मिथ्यात्व रागादिभावकर शून्य तथा एक चिदानंदस्वभावसे पूर्ण जो परमात्मा कहा गया है, अर्थात् विभावसे शून्य स्वभावसे पूर्ण कहा गया है, वही उपादेय है, ऐसा तात्पर्य हुआ ॥५५॥ तदनन्तरं द्रव्यगुणपर्यायनिरूपणमुख्यत्वेन सूत्रत्रयं कथयति । तद्यथाअप्पा जणियउ केण ण वि अप्पे जणि ण कोइ । दव्व-सहावें णिच्चु सुणि पजउ विणलइ होइ ॥५६॥ आत्मा जनितः केन नापि आत्मना जनितं न किमपि । द्रव्यस्वभावेन नित्यं मन्यस्व पर्यायः विनश्यति भवति ।।५६॥ - ऐसे जिसमें तीन प्रकारकी आत्माका कथन है, ऐसे पहले महाअधिकार में जो ज्ञानकी अपेक्षा व्यवहारनयसे लोकालोकव्यापक कहा गया, वही परमात्मा निश्चयनयसे असंख्यातप्रदेशी है, तो भी अपनी देहके प्रमाण रहता है, इस व्याख्यानकी मुख्यतासे छह दोहा-सूत्र कहे गये । आगे द्रव्य, गुण, पर्यायके कथनकी मुख्यतासे तीन दोहे कहते हैं-(आत्मा) यह आत्मा (केन अपि) किसीसे भी (न जनितः) उत्पन्न नहीं हुआ, (आत्मना) और इस आत्मासे (किमपि) कोई द्रव्य (न जनितं) उत्पन्न नहीं हुआ, (द्रव्यस्वभावेन) द्रव्यस्वभावकर (नित्यं मन्यस्व) नित्य जानो, (पर्यायः विनश्यति भवति) पर्यायभावसे विनाशीक है ।
SR No.010072
Book TitleParmatma Prakash evam Bruhad Swayambhu Stotra
Original Sutra AuthorYogindudev, Samantbhadracharya
AuthorVidyakumar Sethi, Yatindrakumar Jain
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages525
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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