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________________ [ ४५ ] आत्मा योगिन् सर्वगतः आत्मा जडोऽपि विजानीहि । आत्मानं देहप्रमाणं मन्यस्व आत्मानं शून्यं विजानीहि ।। ५१ ।। आगे नय- विभागकर आत्मा सबरूप है, एकान्तवादकर अन्यवादी मानते हैं, सो ठीक नहीं है, इस प्रकार चारों प्रश्नोंको स्वीकार करके समाधान करते हैं - (हे योगिन् ) हे प्रभाकरभट्ट, ( आत्मा सर्वगतः ) आगे कहे जानेवाले नयके भेदसे आत्मा सर्वगत भी है, (आत्मा) आत्मा (जडोsपि ) जड़ भी है ऐसा (विजानीहि ) जानो, ( आत्मानं देहप्रमाणं) आत्माको देहके बराबर भी ( मन्यस्व) मानो, ( आत्मानं शून्यं) आत्माको शून्य भी (विजानीहि ) जानो । नय - विभाग से माननेमें कोई दोष नहीं हैं, ऐसा तात्पर्य है ।। ५१ ।। अथ कर्मरहितात्मा केवलज्ञानेन लोकालोकं जानाति तेन कारणेन सर्वगतो भवतीति प्रतिपादयति अप्पा कम्म-विवज्जियउ केवल गाणें जेण । लोयालोउ वि मुणइ जिय सव्वगु बुच्चइ ते ॥ ५२ ॥ आत्मा कर्मविवर्जितः केवलज्ञानेन येन । लोकालोकमपि मनुते जीव सर्वगः उच्यते तेन ।। ५२ ।। आगे कर्मरहित आत्मा केवलज्ञानसे लोक और अलोक दोनोंको जानता है, इसलिये सर्वव्यापक भी हो सकता है, ऐसा कहते हैं - ( आत्मा ) यह आत्मा ( कर्मविवर्जितः) कर्मरहित हुआ (केवलज्ञानेन ) केवलज्ञानसे (येन ) जिस कारण ( लोकालोकमपि ) लोक और अलोकको (मनुते ) जानता है, (तेन) इसीलिये (हे जीव) हे जीव, ( सवर्गः ) सर्वगत (उच्यते) कहा जाता है । भावार्थ - यह आत्मा व्यवहारनयसे केवलज्ञानकर लोक अलोकको जानता है, और शरीर में रहने पर भी निश्चयनयसे अपने स्वरूपको जानता है, इस कारण ज्ञानकी अपेक्षा तो व्यवहारनयसे सर्वगत है, प्रदेशोंकी अपेक्षा नहीं है । जैसे रूपवाले पदार्थको नेत्र देखते हैं, परन्तु उन पदार्थोंसे तन्मय नहीं होते, उसरूप नहीं होते हैं । यहां कोई प्रश्न करता है, कि जो व्यवहारनयसे लोकालोकको जानता है, और निश्चयनयसे नहीं, तो व्यवहारसे सर्वज्ञपना हुआ, निश्चयनयकर न हुआ ? उसका समाधान करते हैं- जैसे अपनी आत्माको तन्मयी होकर जानता है, उस तरह परद्रव्यको
SR No.010072
Book TitleParmatma Prakash evam Bruhad Swayambhu Stotra
Original Sutra AuthorYogindudev, Samantbhadracharya
AuthorVidyakumar Sethi, Yatindrakumar Jain
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages525
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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