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________________ [ ४२ ]] है, उसी तरह (मुक्तानां) मुक्त जीवोंका (ज्ञानं ) ज्ञान भी जहां तक ज्ञेय (पदार्थ) हैं. वहां तक फैल जाता है, (ज्ञेयाभावे) और ज्ञेयका अवलम्बन न मिलने से ( बलेपि ? ) जानने की शक्ति होनेपर भी ( तिष्ठति) ठहर जाता है, अर्थात् कोई पदार्थ जाननेसे बाकी नहीं रहता, सब द्रव्य, क्षेत्र, काल, और सब भावोंको ज्ञान जानता है, ऐसे तीन लोक सरीखे अनन्ते लोकालोक होवें, तो भी एक समय में ही जान लेवे, (यस्य) जिस भगवान परमात्मा के ( पदे) केवलज्ञानमें (परमस्वभाव) अपना उत्कृष्ट स्वभाव सबके जाननेरूप (fa) प्रतिभासित हो रहा है, अर्थात् ज्ञान सबका अन्तर्यामी है, सर्वाकार ज्ञानकी परिणति है, ऐसा (भणित्वा) जानकर ज्ञानका आराधन करो । भावार्थ - जहां तक मण्डप वहां तक ही बेल (लता) की बढ़वारी है, और जब मण्डपका अभाव हो, तब बेल स्थिर होके आगे नहीं फैलती, लेकिन बेलमें विस्तार शक्तिका अभाव नहीं कह सकते, इसी तरह सर्वव्यापक ज्ञान केवलीका है, जिसके ज्ञानमें सब पदार्थं झलकते हैं, वही ज्ञान आत्माका परम स्वभाव है, ऐसा जिसका ज्ञान है, वही शुद्धात्मा उपादेय है । यह ज्ञानानन्दरूप आत्माराम है, वही महामुनियों के चित्तका विश्राम ( ठहरने की जगह ) है ||४७ ॥ अथ यस्य कर्माणि यद्यपि सुखदुःखादिकं जनयन्ति तथापि स न जनितो न हृत इत्यभिप्रायं मनसि धृत्वा सूत्रं कथयति कम्महिं जासु जांतहिं वि डि णिउ कज्जु सया वि । किं पिए जयिउ हरिउ वि सो परमप्पउ भावि ॥४८॥ 1: कर्मभिः यस्य जनयद्भिरपि निजनिजकार्यं सदापि । किमपि न जनितो हृतः नैव तं परमात्मानं भावय ||४८ || आगे जो शुभ अशुभ कर्म हैं, वे यद्यपि सुख-दुःखादिको उपजाते हैं, तो भी वह आत्मा किसीसे उत्पन्न नहीं हुआ, किसीने बनाया नहीं, ऐसा अभिप्राय मनमें रखकर गाथा-सूत्र कहते हैं - ( कर्मभिः) ज्ञानावरणादि कर्म (सदापि ) हमेशा (निजनिजकार्यं) अपने-अपने सुख-दुःखादि कार्यको (जनयद्भिरपि ) प्रगट करते हैं, तो भी शुद्धनिश्चयनयकर (यस्य) जिस आत्माका ( किमपि ) कुछ भी अर्थात् 'अनन्तज्ञानादिस्वरूप ( न जनितः) न तो नया पैदा किया और (नैव हृतः ) न विनाश किया, और न दूसरी तरहका किया, (तं) उस ( परमात्मानं ) परमात्माको (भावय) तू चिन्तवन कर |
SR No.010072
Book TitleParmatma Prakash evam Bruhad Swayambhu Stotra
Original Sutra AuthorYogindudev, Samantbhadracharya
AuthorVidyakumar Sethi, Yatindrakumar Jain
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages525
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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