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________________ । [. ४१ ] .... जसु परमत्थे बंधु णवि जोइय ण वि संसारु। सो परमप्पउ जाणि तुहुँ मणि मिल्लिवि ववहारु ॥४६॥ : __यस्य परमार्थेन बन्धो नैव योगिन् नापि संसारः । तं परमात्मानं जानीहि त्वं मनसि मुक्त्वा व्यवहारम् ।।४६।। . आगे जिसके निश्चयकर बन्ध नहीं हैं और संसार भी नहीं है, उस आत्माको सब लौकिक व्यवहार छोड़कर अच्छी तरह पहचानो, ऐसा कहते हैं-(हे योगिन्) हे योगी, (यस्य) जिस चिदानन्द शुद्धात्माके (परमार्थेन) निश्चय करके , (संसारः) निज स्वभावसे भिन्न द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव, भावरूप पांच प्रकार परिवर्तन (भ्रमण) स्वरूप संसार (नैव) नहीं है, (बन्धो नापि) और संसारके कारण जो प्रकृति, स्थिति, अनुभाग, प्रदेशरूप चार प्रकारका बन्ध भी नहीं है । जो बन्ध केवलज्ञानादि अनन्तचतुष्टयकी प्रगटतारूप मोक्ष-पदार्थ से जुदा है, (तं परमात्मानं) उस परमात्माको (त्वं) तू (मनास व्यवहारं मुक्त्वा) मनमें से सब लौकिक-व्यवहारको छोड़कर तथा वीतराग समाधिमें ठहरकर (जानीहि) जान, अर्थात् चिन्तवन कर । . भावार्थ---शुद्धात्माकी अनुभूतिसे भिन्न जो संसार और संसारका कारण बंध इन दोनोंसे रहित और आकुलतासे रहित ऐसे लक्षणवाला मोक्षका मूलकारण जो शुद्धात्सा है, वही सर्वथा आराधने योग्य है ॥४६॥ अथ यस्य परमात्मनो ज्ञान वल्लीवन ज्ञेयास्तित्वाभावेन निवर्तते न च शक्त्यभावेनेति कथयति णेयाभावे विल्लि जिम थक्कइ णाणु वलेवि । मुकहं जसु पय बिंबियउ परम-सहाउ भणेवि ॥४७॥ ज्ञेयाभावे वल्ली यथा तिष्ठति ज्ञानं वलित्वा । मुक्तानां यस्य पदे बिम्बितं परमस्वभावं भणित्वा ।।४७।। .. आगे जिस परमात्माका ज्ञान सर्वव्यापक है, ऐसा कोई पदार्थ नहीं है, जो ज्ञानसे न जाना जावे, सब ही पदार्थ ज्ञानमें भासते है, ऐसा कहते हैं-(यथा) जैसे मण्डपके अभावसे (वल्ली) बेल (लता) (तिष्ठति) ठहरती है, अर्थात् जहां तक मंडप है, वहां तक तो चढ़ती है और आगे मण्डपका सहारा न मिलने से चढ़नेसे ठहर जाती मक
SR No.010072
Book TitleParmatma Prakash evam Bruhad Swayambhu Stotra
Original Sutra AuthorYogindudev, Samantbhadracharya
AuthorVidyakumar Sethi, Yatindrakumar Jain
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages525
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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