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________________ [ २६ ] देहादेहयोः यो वसति भेदाभेदनयेन । तमात्मानं मन्यस्व जीव त्वं किमन्येन बहुना ॥२६॥ . आगे यह परमात्मा व्यवहारनयसे तो इस देहमें ठहर रहा है, लेकिन निश्चय नयकर अपने स्वरूपमें ही तिष्ठता है, ऐसी आत्माको कहते हैं- (यः) जो (भेदाभेदनयेन देहादेहयोः वसति) अनुपचरित असदुद्भूतव्यवहारनयकर अपनेसे भिन्न जड़रूप देह में तिष्ठ रहा है, और शुद्ध निश्चयनयकर अपने आत्मस्वभावमें ठहरा हुआ है, अर्थात् व्यवहारनयकर तो देहसे अभेदरूप (तन्मय) है, और निश्चयसे सदा कालसे अत्यन्त जुदा है, अपने स्वभावमें स्थित है, (तं) उसे (हे जीव त्वं) हे जीव, तू (आत्मानं) परमात्मा (मन्यस्व) जान । अर्थात् नित्यानन्द वीतराग निर्विकल्पसमाधिमें ठहरके अपने आत्माका ध्यानकर । (अन्येन) अपनेसे भिन्न (बहुना) देह रागादिकोंसे (किं) तुझे क्या प्रयोजन है ? भावार्थ-देहमें रहता हुआ भी निश्चयसे देहस्वरूप जो नहीं होता, वही निज शुद्धात्मा उपादेय है ।।२६।। . अथ जीवाजीवयोरेकत्वं मा कालिक्षणभेदेन भेदोऽस्तीति निरूपयतिजीवाजीव म एक्कु करि लक्खण भेएं भेउ । जो परु सो परु भणमि मुणि अप्पा अप्पु अभेउ ॥३०॥ जीवाजीवो मा एकौ कुरु लक्षणभेदेन भेदः । यत्परं तत्परं भणामि मन्यस्व आत्मन आत्मना अभेदः ॥३०॥ आगे जीव और अजीवमें लक्षणके भेदसे भेद है, तू दोनोंको एक मत जान, ऐसा कहते हैं-हे प्रभाकरभट्ट, तू (जीवाजीवौ) जीव और अजीवको (एकौ) एक (मा कार्षीः) मत कर; क्योंकि इन दोनोंमें (लक्षणभेदेन) लक्षणके भेदसे (भेदः) भेद है (यत्परं) जो परके सम्बन्धसे उत्पन्न हुए रागादि विभाव (विकार) हैं (तत्परं) उनको पर (अन्य) (मन्यस्व) समझ (च) और (आत्मनः) आत्माका (आत्मना अभेदः) अपनेसे अभेद जान (भणामि) ऐसा मैं कहता हूं। भावार्थ-जीव अजीवके लक्षणों में से जीवका लक्षण शुद्ध चैतन्य है, वह स्पर्श, - रस, गन्धरूप शब्दादिकसे रहित है । ऐसा ही श्रीसमयसारमें कहा है-"अरसं"
SR No.010072
Book TitleParmatma Prakash evam Bruhad Swayambhu Stotra
Original Sutra AuthorYogindudev, Samantbhadracharya
AuthorVidyakumar Sethi, Yatindrakumar Jain
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages525
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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