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________________ Itesunacitati o श्री मुनिसुव्रत जिन स्तुति १८५ स्थिति रखने वाले हैं, ( मुनिवृषभः जो मुनियों में प्रधान मुनिनाथ हैं, (अनघः ) व जिन्होंने चार घातिया कर्मरूपी पाप को दूर कर डाला है ऐसे ( मुनिसुव्रतः । श्री मुनि सुवत तीर्थकर ( भवान् ) श्राप ( मुनिपरिषदि ) मुनियों की सभा में अर्थात् समवसरण में (निर्बभौ । इस तरह शोभते भये( उडुपरिषत परिवीतसोमवत् । जिस तरह चन्द्रमा नक्षत्र व तारागरणों की सभा से वेष्ठित शोभता है । . भावार्थ---यहां भी कवि ने श्री मुनिसुव्रतनाथ के नाम की सार्थकता दिखाई है कि मुनि अवस्था में जिस व्यवहार व निश्वयचारित्र को प्रावश्यकता है उन सबके मले प्रकार धारण करने वाले हैं अपने मुनि योग्य व्रतों में भले प्रकार स्थित हैं। इसी के प्रभाव से प्रभ ने धातिया कर्मों का नाश किया और वे मुनियों में प्रधान स्नातक पदधारी अरहन्त होगए। तब इन्द्रादि देवों ने समवसरण की रचना की उसके भीतर अष्ट प्रातिहार्य सहित भगवान विराजते हुए मुनिगण सहित ऐसे शोभते हुए जिस तरह चन्द्रमा तारागण सहित शोभता है । धम्मर सायरण में कहा है कि सिंहासणछत्तत्तयदिव्वोधुणिपुप्पविटिचमराई : भामण्डलदु'दुहियो वरतरू परमेट्ठि चिह्न त्थ ।।१२।। भावार्थ---जब अरहन्त परमेष्टि सुनिनाथ होते हैं तब ये पाठ चिह्न प्रगट होते है, १.शासिहासन, २. छत्रत्रय, ३. दिव्यध्वनि, ४. पुष्पवृष्टि, ५. चमरों का ढरना, ६. भामण्डल, ७. दुदुभी बाजों का बजना, ८. अशोक वृक्ष का होना । सृग्विणी छन्द साधु उचित व्रतों में सुनिश्चित भये, कम हर तीर्थकर साधु सुव्रत भये । साधुगण की सभा में सुशोभित मये, चाद्र जिम उडुगणों से सुवेष्ठित भये ।। उत्थानिको--भगवान के शरीर के महात्म्य को कहते हैं परिणतशितिकण्ठरागया कृतमदनिग्रहविग्रहाऽऽभया। तवजिन ! तपसः प्रसूतया ग्रहपरिवेषरुचेव शोभितम् ।।११२॥ सन्वयार्थ- (जिन) हे जिनेन्द्र ! (तव) भापका शरीर ( परिणति शिस्तिकण्ठरावया
SR No.010072
Book TitleParmatma Prakash evam Bruhad Swayambhu Stotra
Original Sutra AuthorYogindudev, Samantbhadracharya
AuthorVidyakumar Sethi, Yatindrakumar Jain
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages525
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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