SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 43
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [ १७ ] स्पर्शकर पीछे पड़ जाते हैं, सो कुछ-एक भव भी धारण करते हैं, तथा क्षपकवाले आठवेंसे नवमें गुणस्थानमें प्राप्त होते हैं, वहां कषायोंका सर्वथा नाश होता है, एक संज्वलनलोभ रह जाता है, अन्य सबका अभाव होनेसे वीतराग भाव अति प्रबल हों जाता है, इसलिये स्वसंवेदनज्ञानका बहुत ज्यादा प्रकाश होता है, परन्तु एक संज्वलन लोभ बाकी रहनेसे वहां सरागचरित्र ही कहा जाता है। दशवें गुणस्थानमें सूक्ष्मलोभ भी नहीं रहता, तब मोहकी अट्ठाईस प्रकृतियोंके नष्ट हो जानेसे वीतरागचारित्रको सिद्धि हो जाती है । दशवेंसे बारहवें में जाते हैं, ग्यारहवें गुणस्थानका स्पर्श नहीं करते, वहां निर्मोह वीतरागीके शुक्लध्यानका दूसरा पाया (भेद) प्रगट होता है, यथाख्यातचारित्र होजाता है । बारहवेंके अन्त में ज्ञानावरण, दर्शनावरण, अन्तराय इन तीनोंका भी विनाश कर डाला, मोहका नाश पहले हो ही चुका था, तब चारों घातियाकर्मों के नष्ट हो जानेसे तेरहवें गुणस्थानमें केवलज्ञान प्रगट होता है, वहांपर ही शुद्ध परमात्मा होता है, अर्थात् उसके ज्ञानका पूर्ण प्रकाश हो जाता है, निःकषाय है। वह चौथे गुणस्थानसे लेकर बारहवें गुणस्थानतक तो अन्तरात्मा है, उसके गुणस्थान प्रति चढ़ती हुई शुद्धता है, और पूर्ण शुद्धता परमात्माके है, यह सारांश समझना ॥१२॥ अथ त्रिविधात्मसंज्ञां वहिरात्मलक्षणं च कथयति मूदु वियक्खण बंभु पर अप्पा ति-विह हवेइ । देहु जि अप्पा जो मुणइ सो जणु मूड हवेइ ॥१३॥ मूढो विचक्षणो ब्रह्मा परः आत्मा त्रिविधो भवति । देहमेव आत्मानं यो मनुते स जनो मूढो भवति ।।१३॥ .... तीन प्रकारके आत्माके भेद हैं, उनमें से प्रथम बहिरात्माका लक्षण कहते हैं(मूढः) मिथ्यात्व रागादिरूप परिणत हुआ बहिरात्मा, (विचक्षणः) वीतराग निर्विकल्प स्वसंवेदनज्ञानरूप परिणमन करता हुआ अन्तरात्मा (ब्रह्मा परः) और शुद्ध-बुद्ध स्वभाव परमात्मा अर्थात् रागादि रहित अनन्त ज्ञानादि सहित, भावद्रव्य कर्म नोकर्म रहित आत्मा इस प्रकार (आत्मा) आत्मा (त्रिविधो भवति ) तीन तरहका है, अर्थात् बहिरात्मा, अन्तरात्मा, परमात्मा, ये तीन भेद हैं। इनमेंसे ( यः ) जो (देहमेव) देहको ही (आत्मानं) आत्मा (मनुते) मानता है, ( स जनः ) वह प्राणी (मूढः ) बहिरात्मा ( भवति ) है, अर्थात् बहिर्मुख मिथ्यादृष्टी है।
SR No.010072
Book TitleParmatma Prakash evam Bruhad Swayambhu Stotra
Original Sutra AuthorYogindudev, Samantbhadracharya
AuthorVidyakumar Sethi, Yatindrakumar Jain
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages525
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy