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________________ [ १६ ] ... भावार्थ-जो वीतराग स्वसंवेदनकर परमात्मा जाना था, वही ध्यान करने योग्य है। यहां शिष्य ने प्रश्न किया था, जो स्वसंवेदन अर्थात् अपनेकर अपनेको अनुभवना इसमें वीतराग विशेषण क्यों कहा ? क्योंकि जो स्वसंवेदन ज्ञान होवेगा, वह तो रागरहित होवेगा ही। इसका समाधान श्रीगुरूने किया-कि विषयोंके आस्वादनसे भी उन वस्तुओंके स्वरूपका जानपना होता है, परन्तु रागभावकर दूषित है, इसलिये निजरस आस्वाद नहीं है, और वीतराग दशामें स्वरूपका यथार्थ ज्ञान होता है, आकुलता रहित होता है । तथा स्वसंवेदनज्ञान प्रथम अवस्थामें चौथे पांचवें गुणस्थानवाले गृहस्थके भी होता है, वहां पर सराग देखने में आता है, इसलिये रागसहित अवस्थाके निषेधके लिये वीतराग स्वसंवेदन ज्ञान ऐसा कहा है। रागभाव है, वह कषायरूप है, इस कारण जब तक मिथ्यादृष्टिके अनन्तानुबन्धीकषाय है, तबतक तो बहिरात्मा है, उसके तो स्वसंवेदन ज्ञान अर्थात् सम्यक्ज्ञान सर्वथा ही नहीं है, व्रत और चतुर्थ गुणस्थानमें सम्यग्दृष्टीके मिथ्यात्व तथा अनन्तानुबन्धीके अभाव होनेसे सम्यग्ज्ञान तो हो गया, परन्तु कषायको तीन चौकड़ी बाकी रहनेसे द्वितीयाके चन्द्रमाके समान विशेष प्रकाश नहीं होता, और श्रावकके पांचवें गुणस्थानमें दो चौकड़ीका अभाव है, इसलिये रागभाव कुछ कम हुआ, वीतरागभाव बढ़ गया, इस कारण स्वसंवेदवज्ञान भी प्रबल हुआ, परंतु दो चौकड़ीके रहनेसे मुनिके समान प्रकाश नहीं हुआ। मुनिके तीन चौकड़ीका अभाव है, इसलिये रागभाव तो निर्बल होगया, तथा वीतरागभाव प्रबल हुआ, वहांपर स्वसंवेदवज्ञानका अधिक प्रकाश हुआ, परन्तु चौथी चौकड़ी बाकी है, इसलिये छ8 गुणस्थानवाले मुनि सरागसंयमी हैं। वीतरागसंयमीके जैसा प्रकाश नहीं है। सातवें गुणस्थानमें चौथी चौकड़ी मन्द हो जाती है, वहां पर आहार-विहार क्रिया नहीं होती, ध्यानमें आरूढ़ रहते हैं, सातवेंसे छ8 गुणस्थानमें आवें, तब वहां पर आहारादि क्रिया है, इसी प्रकार छट्ठा सातवां करते रहते हैं, वहां पर अन्तर्मुहर्तकाल है । आठवें गुणस्थानमें चौथी चौकड़ अत्यन्त मन्द हो जाती है, वहां रागभावकी अत्यन्त क्षीणता होती है, वीतरागभाव पुष्ट होता है, स्वसंवेदनज्ञानका विशेष प्रकाश होता है, श्रेणी मांडनेसे शुक्लध्यान उत्पन्न होता है । श्रेणोके दो भेद हैं, एक क्षपक, दूसरी उपशम । क्षपक श्रेणीवाले तो उसी भवसे केवलज्ञान पाकर मुक्त होजाते हैं, और उपशमवाले आठवें नवमें दशवेंसे ग्यारहवां
SR No.010072
Book TitleParmatma Prakash evam Bruhad Swayambhu Stotra
Original Sutra AuthorYogindudev, Samantbhadracharya
AuthorVidyakumar Sethi, Yatindrakumar Jain
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages525
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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