SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 420
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १०४ स्वयंभू स्तोत्र टीका दृष्टि से मित्र देखता है । जिनका कोई सम्बन्ध नहीं है वे उसको उदासीन भाव से उसी समय देखते हैं । देवदत्त में शत्रु, मित्र, व अनुपम रूपपना एक ही काल में है यह प्रमाण का विषय है । नय एक-एक को एक काल में प्रकाश करेगा। जब उसे शत्रुपता दिखलाना होगा तब अन्य दोनों धर्मों को गौरण करके कहना होगा कि यह रामचन्द्र का शत्रु है । जब मित्रपना दिखलाना होगा तब कहेगा यह दुर्गादत्त का मित्र है इत्यादि । श्राप्तमीमांसा में स्वामी नय का स्वरूप बताते हैं सर्मेणैव साध्यस्य साधम्र्म्यादिविरोधतः । स्याद्वादप्रविभक्तार्थविशेषव्यञ्जको नयः ॥१०६ भावार्थ - - यह नय जिस किसी एक धर्म को सिद्ध करता है उसे ही उसी ही धर्म की अपेक्षा बिना किसी विरोध के सिद्ध करता है तथा स्याद्वाद रूप श्रुतज्ञान से प्रगट किये हुए पदार्थ के एक एक अंश को या स्वभाव को दिखलाने वाला नय है-अनेक स्वभावों को बताने वाला प्रमाण है. एक स्वभाव को झलकाने वाला नय है । छन्द मालिनी वक्ता इच्छा से मुख्य इक धर्म होता, तब अन्य विवक्षा बिन गोणता माहि मोता ॥ अरिमित्र उभयविन एक जन शक्ति रखता है तुझ मत द्वैतं कार्य तव मर्थ करता ॥५३॥ उत्थानिका --शिष्य कहता है कि जब दृष्टान्त का समर्थन करने वाला है यह कहना ठीक नहीं है । दृष्टान्त से कोई प्रयोजन नहीं निकलता। इसका समाधान करते हैं दृष्टान्तसिद्धावुभयो विवादे, साध्यं प्रसिद्ध्येत्न तु तागस्ति । यत्सर्वर्थकान्तनियामदृष्टं त्वदीयदृष्टिविभवन्य शेषे ।।५४ || अन्वयार्थ -- (उभयोः विवादे) वादी तथा प्रतिवादी दोनों के बीच में किसी बात की सिद्धि में झगड़ा होने पर ( दृष्टान्तसिद्धी ) दृष्टान्त का निर्णय हो जाने पर ( साध्यं प्रसिद्धयेत् ) साध्य को सिद्धि हो जाती है । अर्थात् जब दृष्टान्त वादी प्रतिवादी दोनों को मान्य होता है तब वादी जिसे सिद्ध करना चाहता है उसे प्रतिवादी मान लेता है [ व सर्वथा एकान्तनियामदृष्ट ] जिनका मत सर्वथा एक धर्मरूप हो वस्तु को उनके मत में ( तु तादृक् न ग्रस्ति ) तो वैसा सिद्ध होना कठिन है । समर्थन नहीं कर सकेगा । परन्तु [ त्वदीयदृष्टिः श्रये विभवति ] प्रापका मानने वाला है उनको दृष्टान्त अनेकान्त म
SR No.010072
Book TitleParmatma Prakash evam Bruhad Swayambhu Stotra
Original Sutra AuthorYogindudev, Samantbhadracharya
AuthorVidyakumar Sethi, Yatindrakumar Jain
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages525
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy