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________________ श्री श्रेयांशनाथ जिन स्तुति विवक्षितो मुख्य इतीष्यतेऽन्यो, गुरणोऽविवक्षो न निरात्मकस्ते । तथारिमित्रानुभयादिशक्तिद्वयावधेः कार्यकरं हि वस्तु ।। ५३ ।। १०३ श्रन्वयार्थ -- (ते) हे श्रेयांशनाथ भगवान् ! आपके मत में ( निरात्मकः न ) वस्तु अनेक धर्मों से रहित नहीं है । वस्तु में अनेक स्वभाव होते हैं उनमें से ( विवक्षितः ) जिसको कहने की इच्छा होती है । वह ( मुख्यः इति इष्यते ) मुख्य करके नय के द्वारा कहा जाता है तथा ( विवक्षः अन्यः गुणः ) जिसको प्रधान करके कहने की इच्छा नहीं होती है उसको गौरण या प्रप्रधान कर दिया जाता है (तथा) वस्तु तो दोनों ही स्थानों को रखने वाली होती है । [ अरिमित्रानुभयादि शक्तिः ] इसका दृष्टान्त देते हैं कि एक देवदत्त है वह एक ही समय में किसी का शत्रु होने से शत्रुपना व किसी का मित्र होते से मित्रपत्ना व किसी का शत्रु या मित्र कोई न होने से उदासीनपना इत्यादि अनेक स्वभावों को रखने वाला है उनमें से किसी एक बात को एक समय में प्रयोजनवश कहा जायगा । जैसे यह रामचन्द्र का शत्रु है, यह दुर्गादत्त का मित्र है । हमारा तो न यह शत्रु है न मित्र है । [ वस्तु द्वयावधेः कार्यकरं हि ] हरएक पदार्थ दो विरोधी स्वभावों को रखता है तब ही वह कार्यकारी है व प्रयोजन सिद्ध कर सकता है । भावार्थ - - यहां पर दिखलाया है कि हरएक वस्तु एक काल में अनेक स्वभावों को रखने वाली होती है, वस्तु स्वचतुष्टय की अपेक्षा अस्तिरूप है, परचतुष्टय की अपेक्षा नास्ति रूप है, द्रव्यार्थिक नय से नित्य है, पर्यायार्थिक नय से अनित्य है । श्रभेद नय से एक है भेद नय से अनेक है, इत्यादि । तव अनेक धर्म स्वरूप जानना प्रसारण का विषय है। उसी वस्तु को एक एक स्वभाव करके समझाने के लिये नय काम देता है । यह नय जब नित्यपने को मुख्य करके समझायेगा तब प्रनित्यपना गौरग हो जायेगा । जब प्रनित्यपने को समझायेगा तब नित्यपना गौरण हो जायगा । तथापि वस्तु तो नित्य व प्रनित्य दोनों स्वभाव रखती हैं । यदि वस्तु को ऐसा नहीं माने तो वह कुछ काम ही नहीं कर सकती है | यदि सर्वथा नित्य मानें तो अंवस्था न बदलने से कोई काम नहीं बनाएगी । यदि सर्वथा नित्य माने तो एकदम नष्ट हो जायगी, ठहर ही न सकेगी, तब उससे काम हो क्या लिया जायगा । वस्तु में अनेक स्वभाव हो सकते हैं उसका दृष्टान्त बिलकुल प्रगट है । एक देवदत्त खड़ा है । सामने से १०-२० आदमी श्रारहे हैं । उनमें से जो उसका शत्रु है वह देवदत्त को शत्रु की दृष्टि से शत्रु देखता है । जो देवदत्त का उपकारी है वह उसे मित्र की
SR No.010072
Book TitleParmatma Prakash evam Bruhad Swayambhu Stotra
Original Sutra AuthorYogindudev, Samantbhadracharya
AuthorVidyakumar Sethi, Yatindrakumar Jain
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages525
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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