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________________ श्री शीतलनाथ जिन स्तुति रहते हैं । सवेरा होते ही कोई शस्त्र कर्म को प्राजीविका में, कोई लिखने के काम में, कोई कृषि काम में, कोई व्यापार में, कोई नाना प्रकार की कारीगरी करने में, कोई गांव जाकर पैसा लाभ करने में, कोई सेवा करने में लग जाते हैं । इस तरह सारे दिन घोर परिश्रम करके थक जाते हैं। जब रात्रि होती है तब थके पांदे होकर सो जाते हैं । प्रयोजन यह है कि जगत के मानव प्रमाद ही में अपने जीवन के सर्व समय को बिता देते हैं । शिशु वय में तो खेलकूद में लग जाते हैं । कुमार वय में पेट के लिये उद्योग हुनर चाकरी आदि सीखने में तन्मय रहते हैं। युवावय में दिन रात पैसा कमाकर विषयभोग करने में व निद्रा लेने में बिताते हैं । वृद्धवय में निर्बल शिथिल हो दवाई दरमत करते हुए जीने को तृष्णा में घबड़ाए हुए दिन निकाल देते हैं। कभी भी अपने आत्म-स्वरूप में रमरण करने के लिये उद्यम नहीं करते हैं । यदि कदाचित् गृहस्थ व त्यागी का धर्म भी पालते हैं तो पुण्य बन्ध के लिये व अपना लौकिक इष्ट प्रयोजन सिद्ध करने के लिये आत्मिक सुख शान्ति के मार्ग को न तो पहचानते हैं न उसके लिये थोड़ी देर भी प्रयत्न करते हैं। इस तरह मिथ्या दृष्टि जन अपना जीवन मोक्ष मार्ग से विमुख चलकर यों ही बिता देते हैं । परन्तु हे परम भव्य श्री शीतलनाथ भगवन् ! आपने तो प्रमाद को बिलकुल हटा दिया.दिनरात आप तो आत्मा के. शुद्ध करने वाले मोक्षमार्ग में ही जागते रहे । दिन में भी प्रात्मध्यान किया, व तत्व विचार किया, मौन सहित रहे । मात्र आहार के लिए भी मौन सहित गए व जो कुछ मिला संतोष से लेकर लौट आये। फिर तत्व विचार में हो मग्न रहे। रात्रि को भी - आत्मध्यान में ही बिताया। आपने तो रात्रि दिन प्रात्मानुभवरूप मोक्ष मार्ग में व उसके साधक व्यवहार मोक्ष मार्ग में चलकर घोर परिश्रम किया। कभी भी बे-खबर न हए। इसीसे मोक्ष मार्ग को साधते हए भी सुख शान्ति का लाभ किया, और जव घातिक कर्म का नाश कर आप प्ररहन्त परमात्मा हुए तब पूर्ण शान्ति व अनन्त सुख में सदा के लिए मग्न हो गए। आपके जो सच्चे सम्यग्दृष्टी भक्त हैं वे भी आपका अनुकरण करके सुख शान्ति को पा लेते हैं। कोई साधु पद में रहकर उद्यम करते हैं कोई गृहस्थ में ही रहकर प्रात्मानुभव के उद्देश्य से ही जीवन बिताते हैं । धर्म साधन के लिए समय निकालते हुए ही अर्थ व काम पुरुषार्थ में न्याय पूर्वक वर्तते हैं । वास्तव में हर एक मानव को कभी भी मात्मकार्य में प्रमादी न होना चाहिये । सार समुच्चय में कहा है चिरं गतस्य संसारे वयोनिसमाकुले । प्राप्ता सुदुर्ल मा बाधिः शासने जिन भाषिते ।। ९६७।। प्रघना तां समासाद्य संसारच्छेदकारिणीम् । प्रमादो नोचितः कत्त निमेषमाप घीयता ॥२९॥
SR No.010072
Book TitleParmatma Prakash evam Bruhad Swayambhu Stotra
Original Sutra AuthorYogindudev, Samantbhadracharya
AuthorVidyakumar Sethi, Yatindrakumar Jain
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages525
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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